जनता के लहू से सिंचित हो रही सत्ता---राजेश अस्थाना" अनंत"

जनता के लहू से सिंचित हो रही सत्ता
जनता का ही लहू बहता देख रही  है ।

गली गली में घूम रहे 
रक्त पिपासु  पिशाच
छोटी छोटी बच्चियों की
आबरू हो रही तार तार
बुजर्ग हो रहे हैं बेइज्जत
रक्षक ही हो गएँ हैं भक्षक।

मत भूलो सत्ता के नशे में चूर दलालों
जो जनता अपने खून से सींच सकती है
रोक सकती है तुम्हारी धमनियों का खून
ख़ाक में मिला सकती है की तुम थे ही नही।

जनता के लहू से सिंचित हो रही सत्ता
जनता का ही लहू बहता देख रही है ।

उजियारा तुम कब लाओगे----राजेश अस्थाना"अनंत"



उदास मन बोझिल आँखें
रास्ता देखें कब आओगे
हुआ धुधालका इतना गहरा
उजियारा तुम कब लाओगे ।

खुशियों का वह फौव्वारा
जिसमे भीगे सबका तन-मन
जीवन में से हटे अँधेरा वह
उजियारा  तुम कब लाओगे।

और इन्तेजार नहीं हुआ जाता है--- राजेश अस्थाना"अनंत"

दरवाजे पर जब कोई आहट होती है
तुम्हारी आहट का ही इन्तेजार रहता है।

मैं आज भी रोज मंदिर जाती हूँ
भगवन की मूर्ति के पिछे तुम्हे ही ढूंढती हूँ
लौटते हुए जो आम की जो बगिया है ना
वहां भी मोरों के बीच तुम्हे ही दूँढती हूँ।

जब भी  हवाएँ  हल्के से छुकर निकलती हैं
तो सोचती हूँ की उनसे तुम्हारा हाल पूछों
लेकिन फिर सोचती हूँ की वह क्या सोचेंगी
उन्होंने कुछ बुरा कहा तो सुन नहीं पाऊँगी।

एक बार आ जाओ ,आकर रहने के लिए नहीं
बस मिल के चले जाना,लोगों को जवाब देना
लोग कहते है की तुम भी भी औरों जैसे हो
लेकिन मैं जानती की तुम औरों जैसे नहीं हो     

अब मेरा शरीर कमजोर हुआ जाता है
और इन्तेजार नहीं हुआ जाता है
जाने से पहले बस यही आस है की
जब प्राण निकले तो तुम मेरे पास हो
तेरे हाथ से ही गंगाजल मुँह में पड़े 
ताकि तुझे कुछ कह न सके मेरे जाने के बाद।
   

कि रात गुजर गई....राजेश अस्थाना"अनंत"

कुछ तुम्हारे गिले थे
कुछ हमारे गिले थे
कहना शुरू ही हुआ
कि रात गुजर गई

दुनिया में दूर थे
ख्वाबों में एक थे
घड़ी मिलन की आई
कि रात गुजर गई

वफ़ा की कहानी
शुरु ही हुई थी
शबाब पर आती
कि रात गुजर गई

मुझपे रुकना है
या आगे बढ़ना
यह अख्तियार
तो तुम्हारा है
लेकिन जाते-जाते 
यह तो बताते जाओ
की यह फैसला
बदल तो न दोगे
नहीं तो इन्तेजार
करूँ यहीं
वरना रुसवा होगे
मेरे जाने के बाद।
-----राजेश अस्थाना"अनंत"


कौन हो तुम--राजेश अस्थाना "अनन्त"

कौन हो तुम
सागर हो
जो मुझे डुबोय
जा रहे हो।

जब भी खड़ा
होना चाहता हूँ
लहरों का कोई थपेड़ा
गिरा देता है ।

फिर भी खड़ा
होना चाहता हूँ
फिर से जीना
चाहता हूँ।

तुम इतने गहरे
क्यों हो की
तैर के भी पार
नहीं हो पा रहा हूँ ।

कौन हो तुम
सागर हो
जो मुझे
डुबोय जा
रहे हो ।

जाना कहाँ है मंजिल क्या है उसका पता न पूछ
सफ़र की मुश्किलों को मत पूछ बस हौसला पूछ

वादा था साथ चलने का
लेकिन यह खेल तो नसीबों  है
तुम कहाँ तक पहुंचे
हम कहाँ तक पहुंचे।

बंद जुबाँ से देता हूँ आवाज़
शायद  तुम तक पहुंचे
बस इतनी चाहत है,
यहाँ जो भी  फासले  हों
लेकिन वहां हम साथ साथ पहुंचे।

तुम कहो या न कहो तुम्हारी आखें ये बयाँ करती हैं
कि इस जहाँ में तुम्हे हम से ज्यादा कोई नहीं चाहता।

एक तुम्ही तो हो जो खुश हो हर हाल में मेरे साथ
नहीं तो इस खंडहर को मकान कौन समझेगा।

सिवा उसके कौन है जो पहचानेगा मुझे भीड़ मे
सिवा उसके मैं खास हूँ किसके लिए इस दुनिया में ।
-------राजेश अस्थाना"अनंत"

तुम कहो या न कहो तुम्हारी आखें ये बयाँ करती हैं
कि इस जहाँ में तुम्हे हम से ज्यादा कोई नहीं चाहता।

एक तुम्ही तो हो जो खुश हो हर हाल में मेरे साथ
नहीं तो इस खंडहर को मकान कौन समझेगा।

सिवा उसके कौन है जो पहचानेगा मुझे भीड़ मे
सिवा उसके मैं खास हूँ किसके लिए इस दुनिया में ।
-------राजेश अस्थाना"अनंत"

और मैं उसका साक्षी बनूँ ----राजेश अस्थाना"अनंत"

मैं पवन बनना चाहता हूँ
उसी की तरह बहना चाहता हूँ
चाहता  हूँ मैं  बहुं तो
आशाओं के नए फूल खिले
ताकि प्यार की कलियाँ महकें
सदभाव की बेलें पनपें
और मैं उसका साक्षी बनूँ ।

मैं जल बनना चाहता  हूँ
उसकी तरह बहना चाहता हूँ
चाहता हूँ मैं बहुं तो
कोई प्यासा न रहे
ताकि प्यार की कलियाँ महकें
पंछियों के कलरव से बगिया चहके
और मैं उसका साक्षी बनूँ ।