और इन्तेजार नहीं हुआ जाता है--- राजेश अस्थाना"अनंत"

दरवाजे पर जब कोई आहट होती है
तुम्हारी आहट का ही इन्तेजार रहता है।

मैं आज भी रोज मंदिर जाती हूँ
भगवन की मूर्ति के पिछे तुम्हे ही ढूंढती हूँ
लौटते हुए जो आम की जो बगिया है ना
वहां भी मोरों के बीच तुम्हे ही दूँढती हूँ।

जब भी  हवाएँ  हल्के से छुकर निकलती हैं
तो सोचती हूँ की उनसे तुम्हारा हाल पूछों
लेकिन फिर सोचती हूँ की वह क्या सोचेंगी
उन्होंने कुछ बुरा कहा तो सुन नहीं पाऊँगी।

एक बार आ जाओ ,आकर रहने के लिए नहीं
बस मिल के चले जाना,लोगों को जवाब देना
लोग कहते है की तुम भी भी औरों जैसे हो
लेकिन मैं जानती की तुम औरों जैसे नहीं हो     

अब मेरा शरीर कमजोर हुआ जाता है
और इन्तेजार नहीं हुआ जाता है
जाने से पहले बस यही आस है की
जब प्राण निकले तो तुम मेरे पास हो
तेरे हाथ से ही गंगाजल मुँह में पड़े 
ताकि तुझे कुछ कह न सके मेरे जाने के बाद।
   

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