उम्मीद की सूरत

धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रीयता जैसे बेमानी और संकीर्ण दायरों में संगठित रहने को अभिशप्त मतदाताओं ने दिल्ली में सारे लबादों को उतार फेंका और अपने समय की सच्चाई से जूझने का निर्णायक यत्न किया है। बार-बार गलत समझे जाने और आलोचकों के तीक्ष्ण प्रहारों के बावजूद राजनीति के दरिया में डूब रहे लोगों ने पहली बार आत्मबल और पराक्रम के साथ तैरने और लगभग पार लगने का उल्लेखनीय प्रयास किया है।
यह सब ऐसे समय में घटित हुआ, जिसमें हम ‘कुछ भी नहीं होगा’, ‘सब कुछ इसी तरह चलेगा’ के नियतिवाद से आक्रांत हो चुके हैं। धन, शक्ति, खौफ, षड्यंत्र, गठजोड़ के सहारे दूषित हो चुकी राजनीति चंद लोगों की परस्पर अदला-बदली का खेल बन चुकी है। कहने के लिए पढ़े-लिखे और समझदार होने के बावजूद हम नित नई संकीर्णताओं में बंधते चले जा रहे हैं। सत्ता पाने और बचाने के ही काम में जुटी पार्टियों को विज्ञापन, घोषणा-पत्र और सभाओं में दिए जाने वाले भाषणों के अलावा आम मनुष्य से कोई मतलब नहीं रहा। पूंजीपतियों-अपराधियों के कंधों पर अपने अस्तित्व को टिकाए पार्टियों के जरूरी कर्तव्य उनके हितों का संरक्षण और उन्हें दंड से बचाना ही रह गया है।
ऐसे समय में, जब एक राज्य का मुख्यमंत्री फिर सत्ता में आना अपना एकमात्र लक्ष्य मानता है; गांधी के देश में हिंसा को सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल कर एक मुख्यमंत्री देश का प्रमुख बनना चाहता है; जाति और धर्म की घोषित खेमेबाजी में लगे एक नेताजी दंगों से निपटने में नहीं, खुद के प्रधानमंत्री बनने की कवायद में संलग्न हैं; किसी ने जानवरों के भोजन से खुद को तृप्त किया है, तो किसी ने स्मरणीय बनने की चाह में सरकारी खजाने को लुटाया है।
एक ऐसे समय में, जब देश में वंचितों-शोषितों के लिए चल रहे अनेक जनांदोलनों को कुचलने की भरसक कोशिशें की जाती हैं; संसद में सड़क पर उतरे हुए लोगों का उपहास किया जाता है। विस्थापितों की सूनी पथराई आंखों में महीन-सी झिलमिलाती जीवनाकांक्षा को पढ़ने और बचाने में वर्षों से लगी एक स्त्री की आवाज अनसुनी की जाती है; अपने वेतन-भत्तों को बढ़ाने में एक-स्वर हो जाती ध्वनियों में तेरह बरस से एक बेतुके और निरीह लोगों के लिए जघन्य कानून के खिलाफ भूखी-प्यासी पूर्वोत्तर की युवती को बिसरा दिया जाता है; आत्महत्या करते किसान अलक्षित रह जाते हैं; स्त्रियों के शोषण पर सिर्फ बहस हुआ करती है; हजारों मनुष्य अब तक सिर पर मैला ढोते हैं; योजनाओं से अनजान कुपोषित बच्चों की संख्या लाखों में है; अघोषित सामंतवाद आज तक क्रियाशील है; अल्पसंख्यकों को सिर्फ वोट समझा जाता है; असंख्य गरीब और दलित हाशिये का हिस्सा हैं।
दबाव और प्रलोभन के बिना जनता द्वारा साधारण हैसियत के अनेक प्रतिनिधियों का चुना जाना क्या हमारे समय की एक असाधारण घटना नहीं है! क्या इसे हम राजनीति में लघुमानव की प्रतिष्ठा का समय नहीं कहेंगे? यह सामंतवाद, परिवारवाद, धन, शक्ति, प्रभुत्व के तिलिस्म का एकदम से भरभरा जाना है। नई पीढ़ी को लोहिया और जेपी को नजदीक से समझने का अवसर भी मिला है। नियतिवाद से ग्रस्त पूरे देश की बहुसंख्यक जनता को एक कौंध की तरह उम्मीद मिलेगी, जिसके सहारे अगर उसने समयानुकूल सही, साहसिक और परिवर्तनकारी निर्णय लिए तो समय का ऊंट जनता की करवट ही बैठेगा। खुद कुछ सार्थक नहीं करने वालों की एक व्यापक आबादी ऐसी भी है, जो दूसरों की सक्रियता की निंदा और अपने अनुरूप काम करने की सलाह में ज्यादा रुचि रखती है। अगर हमें सोचने की स्वतंत्रता मिली है, तो क्यों न हम एक संभावनामय भविष्य के बारे में विचार करें।

आंतरिक और जातीय संघर्ष

तकनीकी विकास ने सशस्त्र संघर्ष में बच्चों की भूमिका बदल दी है। एक तरफ जहां दो देशों के बीच युद्ध की संख्या में कमी आई है, वहीं आंतरिक संघर्ष से दुनिया के तीस से ज्यादा देश जूझ रहे हैं। बच्चे इनसे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। लेकिन अब युद्ध से ज्यादा खतरा आंतरिक और जातीय संघर्षों से है, क्योंकि इस तरह के ‘युद्ध’ कई देशों में उनकी अपनी जमीन पर लड़ी जा रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आंतरिक और जातीय संघर्ष में मरने वालों की संख्या युद्ध में मरने वालों से कहीं ज्यादा होती जा रही है। गौरतलब है कि ऐसे आंतरिक संघर्षों में बेकसूर लोग आसानी से शिकार होते हैं। दुनिया के इन संघर्षों में जो लड़ाके हैं उनमें से लगभग एक चौथाई बच्चे हैं। यूनेस्को की इफा मॉनीटरिंग रिपोर्ट 2011 के मुताबिक, दुनिया में चौदह साल से कम उम्र के जो बच्चे स्कूलों से बाहर हैं, उनमें से बयालीस फीसद बच्चे (दो करोड़, अस्सी लाख) उन देशों में हैं, जहां आंतरिक सशस्त्र संघर्ष चल रहा है। संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक आज लगभग ढाई से तीन लाख के बीच बच्चे अलग-अलग देशों में चल रहे सशस्त्र संघर्ष में शामिल हैं।
दक्षिण एशिया के देश, जैसे नेपाल, श्रीलंका, अफगानिस्तान आदि में बच्चे भी युद्ध में शामिल थे। नेपाल में तकरीबन दस साल लंबे चले जन-युद्ध में साढ़े तीन से चार हजार बच्चे माओवादी सशस्त्र दल में शामिल थे। दुनिया के अनेक देशों में विरोधी समूह के प्रति बदले की भावना और अपने जातीय-धार्मिक समूह के प्रति गौरव का भाव पैदा करके बच्चों को सशस्त्र दल में शामिल किया जा रहा है। दरअसल, सशस्त्र समूह के रणनीतिकारों ने बच्चों की भर्ती बहुत सोच-समझ कर की है। युद्धरत समूह दो दशक पहले तक जहां बच्चों का उपयोग सूचना लेने और देने, सामान ढोने, खाना बनाने आदि के काम में करते थे, वहीं अब बारह-चौदह साल के बच्चों को पहली पंक्ति के लड़ाके बना रहे हैं। हल्के वजन और सुगम हथियारों के लिए बच्चों का प्रशिक्षण आसान होता है। दस-बारह वर्ष के बच्चे एके-47, एके-57 जैसे हथियार आसानी से चला सकते हैं और उन्हें ढो सकते हैं। परंपरागत हथियारों को ढोना और चलाना, दोनों ही बच्चों के लिए आसान नहीं था।बच्चे खाना भी कम खाते हैं और उन्हें नियंत्रित करना आसान होता है। यह भी एक कारण है कि लड़ाका समूह बच्चों की भर्ती पर जोर देता है। बाल सैनिकों में शामिल लड़कियों की स्थिति और भी दुखद है। उनका समाज में दुबारा से जुड़ना भी एक चुनौती होती है। युद्धरत समूह में भी उनके शारीरिक शोषण की घटनाएं होती रहती हैं। उनके प्रति अन्य किस्म की हिंसा होने की संभावना औरों की तुलना में ज्यादा होती है। यूनिसेफ के एक अनुमान के मुताबिक छोटे और हल्के हथियारों के कारण 1990 से लेकर अब तक बीस लाख से ज्यादा बच्चे युद्धों में मारे जा चुके हैं, साठ लाख से ज्यादा बच्चे घायल हुए और दो करोड़ चालीस लाख बच्चों को अपना घर छोड़ना पड़ा है। हिंसा के कारण बच्चों के अपने और अन्य अधिकार भी छिन जाते हैं।
मैं झारखंड के ऐसे कई बच्चों से मिला जो माओवाद प्रभावित इलाकों के रहने वाले हैं। माओवादी और पुलिस के बीच चल रहे संघर्ष से बचने के लिए वे जिला और राज्य मुख्यालय में पढ़ रहे हैं। गौरतलब है कि बच्चों पर सूचना देने और लेने का दबाव माओवादी और पुलिस दोनों की तरफ से रहता है। सस्ते होते हथियार और उनकी सुगम उपलब्धता आने वाले समय में एक बड़ी चुनौती के रूप में उभर कर आने वाली है। इसकी झलक पिछड़े और विकासशील देशों के अलावा अमेरिका जैसे देशों के स्कूलों में भी दिखने लगी है, जहां बेवजह अंधाधुंध फायरिंग की घटनाएं अक्सर होती रहती हैं।

शांति तो अर्थहीनता में है...........

लंबे समय से हलचल का आलम था। चित्त अशांत, अस्थिर और अस्त-व्यस्त। इतना गतिशील, जैसे पत्थर पर्वत से लुढ़क रहा हो, इसकी गति स्वत:स्फूर्त होती है, स्वनियंत्रित नहीं। गति उसकी चाह हो या न हो, उसे गतिशील होना ही होता है। और हर गतिशीलता को कभी न कभी गतिहीन भी होना होता है, चाहे तो ‘रिचार्ज’ होने के लिए या फिर खत्म हो जाने के लिए। खैर, मन की गति ने शरीर को भी थका दिया था। मन को स्थिरता चाहिए थी और शरीर को गतिहीनता। सारे गणित लगाए थे। काम को नुकसान तो नहीं होगा, अगले दिन काम का दबाव ज्यादा तो नहीं होगा! सारी व्यवस्था पहले दिमाग में आई और तब छुट्टी का निर्णय हो पाया। कई तरह के भावनात्मक और नैतिक दबाव और उद्वेलन से थके मन-मस्तिष्क के लिए शांति का रास्ता बस निष्क्रिय होने से ही निकल पाता है। कुछ न करो, बस खुद को छोड़ दो। मन को मुक्त कर दो, हर सवाल से, दबाव से, उद्वेलन, अपेक्षा और ख्वाहिश से। और गतिशीलता, सक्रियता की हालत में यह संभव कैसे हो पाता है! तो पहले निष्क्रियता और फिर संगीत के सहारे सुकून की तलाश के लिए छुट्टी ली थी।
जो कुछ दिखाई देता है, वह सब कुछ हमें बांटता है, खींच लेता है अपनी तरफ। जितने ‘दृश्य’ होंगे, हम खुद से उतने ही दूर होंगे। हम खुद से बाहर, बिखरे हुए होंगे। हर सृजन की पृष्ठभूमि में ‘तम’ होता है। शांति का आगोश भी ‘अंधेरा’ ही होता है। कोख के अंधेरे से लेकर सृजन के अंधेरे तक ब्रह्मांड भी अंधेरा है। मन की तहें भी अंधेरी और गुह्य, शांति का रूप भी अंधेरा ही है। आंखें बंद करके ही तो शांति की राह पर चला जा सकता है। रोशनी बस भटकाती है। तो शांति के लिए पहले अंधेरा चुना, फिर संगीत। उस अंधेरे में कुछ नई गजलें लहराने लगीं। हर शेर, हर शब्द के अर्थ तक पहुंचने में भटकने लगे। हर जगह अर्थ है और हर अर्थ की परत है। मन उन्हीं परतों में उलझ जाता है, भटक जाता है, गुम हो जाता है। वह वहां पहुंच ही नहीं पाता, जो स्वयं अर्थ है।
थोड़ी देर की कवायद के बाद लगा कि यह बड़ा थकाऊ है और इससे तो हम कहीं नहीं पहुंच पा रहे हैं। मन तो अर्थों की परतों में भटकने लगा है! क्या इससे शांति मिल पाएगी! बदल दिया संगीत का स्वरूप... शब्दों से इतर सुर पर आ पहुंचे। कुछ मौसम ने भी रहमदिली दिखाई। धूप सिमट गई और काले बादल छा गए। अंधेरा घना और गाढ़ा हो गया। मन कुछ और खुल गया। प्रेम और भक्ति के भाव से लेकर करुणा और वात्सल्य तक, सब कुछ अर्थहीन है, क्योंकि ये स्वयं ही अर्थ हैं। इन्हें शब्द अर्थ नहीं दे सकते हैं। शब्द तो सीमा है, परिभाषा में बांधने की बेवजह की कोशिश। हर ‘दृश्य’ की परिभाषा है, शब्द है। हर शब्द के अर्थ हैं, बल्कि जिनके अर्थ हैं, वही शब्द कहलाए। बस यहीं तक शब्द सीमित है, क्योंकि हर अर्थ की परतें हैं। और इन परतों में ही भटकाव है तो फिर क्या ‘अर्थों’ में शांति है! नहीं, शांति तो अर्थहीनता में है, जो कुछ सहज और तरल है। जो बहुत सूक्ष्म और वायवी है, वह सब कुछ अर्थहीन है और तर्कहीन भी, जैसे प्रेम, दया, भक्ति, सौंदर्य, सृजन, करुणा, वात्सल्य, क्योंकि इन्हें अर्थों की दरकार ही नहीं है। परिभाषाओं से परे हैं, ये स्वयं में अर्थ हैं। जहां भी अर्थ होगा, वहीं भटकाव भी होगा। मतलब ‘अर्थ’ भटकाता है, चाहे उसका संदर्भ ‘अर्थ’, यानी मायने से हो या फिर ‘अर्थ’ यानी धन से!