जनता के लहू से सिंचित हो रही सत्ता---राजेश अस्थाना" अनंत"

जनता के लहू से सिंचित हो रही सत्ता
जनता का ही लहू बहता देख रही  है ।

गली गली में घूम रहे 
रक्त पिपासु  पिशाच
छोटी छोटी बच्चियों की
आबरू हो रही तार तार
बुजर्ग हो रहे हैं बेइज्जत
रक्षक ही हो गएँ हैं भक्षक।

मत भूलो सत्ता के नशे में चूर दलालों
जो जनता अपने खून से सींच सकती है
रोक सकती है तुम्हारी धमनियों का खून
ख़ाक में मिला सकती है की तुम थे ही नही।

जनता के लहू से सिंचित हो रही सत्ता
जनता का ही लहू बहता देख रही है ।

उजियारा तुम कब लाओगे----राजेश अस्थाना"अनंत"



उदास मन बोझिल आँखें
रास्ता देखें कब आओगे
हुआ धुधालका इतना गहरा
उजियारा तुम कब लाओगे ।

खुशियों का वह फौव्वारा
जिसमे भीगे सबका तन-मन
जीवन में से हटे अँधेरा वह
उजियारा  तुम कब लाओगे।

और इन्तेजार नहीं हुआ जाता है--- राजेश अस्थाना"अनंत"

दरवाजे पर जब कोई आहट होती है
तुम्हारी आहट का ही इन्तेजार रहता है।

मैं आज भी रोज मंदिर जाती हूँ
भगवन की मूर्ति के पिछे तुम्हे ही ढूंढती हूँ
लौटते हुए जो आम की जो बगिया है ना
वहां भी मोरों के बीच तुम्हे ही दूँढती हूँ।

जब भी  हवाएँ  हल्के से छुकर निकलती हैं
तो सोचती हूँ की उनसे तुम्हारा हाल पूछों
लेकिन फिर सोचती हूँ की वह क्या सोचेंगी
उन्होंने कुछ बुरा कहा तो सुन नहीं पाऊँगी।

एक बार आ जाओ ,आकर रहने के लिए नहीं
बस मिल के चले जाना,लोगों को जवाब देना
लोग कहते है की तुम भी भी औरों जैसे हो
लेकिन मैं जानती की तुम औरों जैसे नहीं हो     

अब मेरा शरीर कमजोर हुआ जाता है
और इन्तेजार नहीं हुआ जाता है
जाने से पहले बस यही आस है की
जब प्राण निकले तो तुम मेरे पास हो
तेरे हाथ से ही गंगाजल मुँह में पड़े 
ताकि तुझे कुछ कह न सके मेरे जाने के बाद।
   

कि रात गुजर गई....राजेश अस्थाना"अनंत"

कुछ तुम्हारे गिले थे
कुछ हमारे गिले थे
कहना शुरू ही हुआ
कि रात गुजर गई

दुनिया में दूर थे
ख्वाबों में एक थे
घड़ी मिलन की आई
कि रात गुजर गई

वफ़ा की कहानी
शुरु ही हुई थी
शबाब पर आती
कि रात गुजर गई

मुझपे रुकना है
या आगे बढ़ना
यह अख्तियार
तो तुम्हारा है
लेकिन जाते-जाते 
यह तो बताते जाओ
की यह फैसला
बदल तो न दोगे
नहीं तो इन्तेजार
करूँ यहीं
वरना रुसवा होगे
मेरे जाने के बाद।
-----राजेश अस्थाना"अनंत"


कौन हो तुम--राजेश अस्थाना "अनन्त"

कौन हो तुम
सागर हो
जो मुझे डुबोय
जा रहे हो।

जब भी खड़ा
होना चाहता हूँ
लहरों का कोई थपेड़ा
गिरा देता है ।

फिर भी खड़ा
होना चाहता हूँ
फिर से जीना
चाहता हूँ।

तुम इतने गहरे
क्यों हो की
तैर के भी पार
नहीं हो पा रहा हूँ ।

कौन हो तुम
सागर हो
जो मुझे
डुबोय जा
रहे हो ।

जाना कहाँ है मंजिल क्या है उसका पता न पूछ
सफ़र की मुश्किलों को मत पूछ बस हौसला पूछ

वादा था साथ चलने का
लेकिन यह खेल तो नसीबों  है
तुम कहाँ तक पहुंचे
हम कहाँ तक पहुंचे।

बंद जुबाँ से देता हूँ आवाज़
शायद  तुम तक पहुंचे
बस इतनी चाहत है,
यहाँ जो भी  फासले  हों
लेकिन वहां हम साथ साथ पहुंचे।

तुम कहो या न कहो तुम्हारी आखें ये बयाँ करती हैं
कि इस जहाँ में तुम्हे हम से ज्यादा कोई नहीं चाहता।

एक तुम्ही तो हो जो खुश हो हर हाल में मेरे साथ
नहीं तो इस खंडहर को मकान कौन समझेगा।

सिवा उसके कौन है जो पहचानेगा मुझे भीड़ मे
सिवा उसके मैं खास हूँ किसके लिए इस दुनिया में ।
-------राजेश अस्थाना"अनंत"

तुम कहो या न कहो तुम्हारी आखें ये बयाँ करती हैं
कि इस जहाँ में तुम्हे हम से ज्यादा कोई नहीं चाहता।

एक तुम्ही तो हो जो खुश हो हर हाल में मेरे साथ
नहीं तो इस खंडहर को मकान कौन समझेगा।

सिवा उसके कौन है जो पहचानेगा मुझे भीड़ मे
सिवा उसके मैं खास हूँ किसके लिए इस दुनिया में ।
-------राजेश अस्थाना"अनंत"

और मैं उसका साक्षी बनूँ ----राजेश अस्थाना"अनंत"

मैं पवन बनना चाहता हूँ
उसी की तरह बहना चाहता हूँ
चाहता  हूँ मैं  बहुं तो
आशाओं के नए फूल खिले
ताकि प्यार की कलियाँ महकें
सदभाव की बेलें पनपें
और मैं उसका साक्षी बनूँ ।

मैं जल बनना चाहता  हूँ
उसकी तरह बहना चाहता हूँ
चाहता हूँ मैं बहुं तो
कोई प्यासा न रहे
ताकि प्यार की कलियाँ महकें
पंछियों के कलरव से बगिया चहके
और मैं उसका साक्षी बनूँ ।

मीडिया का दायित्व

मीडिया का दायित्व क्या है? भूख, गरीबी, महंगाई, बीमारी, अशिक्षा, असुरक्षा...?  की समस्या को उजागर करना  या मीडिया का दायित्व हैं- नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल का प्रचार करना । पिछले दो महीने की पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों का विश्लेषण कर लीजिए! । लेकिन  मीडिया क्यों उठाए इन मुद्दों को, जब हमारे जनप्रतिनिधियों और सरकारों को ही इनसे मतलब नहीं है! शिक्षा को ही ले लीजिए। सरकारी विद्यालयों की क्या स्थिति है? दोपहर के भोजन के सहारे, मुफ्त किताब-कॉपी के सहारे शिक्षा को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है! दोपहर केभोजन के कारण जब-तब मर्मांतक घटनाएं घटती हैं। क्यों नहीं सरकारी विद्यालयों की दशा-दिशा सुधारी जाती है? किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में, घोषणा-पत्र में क्रांतिकारी सुधार की घोषणा है? अगर आपके पास पैसा नहीं है तो आपका बच्चा अच्छी शिक्षा नहीं पा सकता! ऐसा जान-बूझ कर किया गया है! कॉन्वेंट स्कूल, शिक्षा के बाजारीकरण को फैलाने, बढ़ावा देने में सरकारों का, नीतियों का बहुत बड़ा योगदान है। अगर आपके पास पैसा नहीं है तो पर्याप्त इलाज नहीं मिल सकता। सरकारी अस्पताल बदहाली के शिकार हैं। भ्रष्टाचार के रोग के कारण तमाम सारी दवाइयां बेच दी जाती हैं। मीडिया का काम है ये जो नेतागण घूम-घूम कर वोट मांग रहे हैं, राजनीतिक दल उन्हें उन अंधेरों को दिखाएं। बिजली, पानी, सड़क से अछूते इलाकों को दिखाएं। विकास वह नहीं जो मॉल, बाजार और अट्टालिकाओं में दिखता है। विकास वह होता है, जो लोगों के जीवन-स्तर में नजर आए। ऐसा विकास आबादी के एक छोटे से हिस्से में ही नजर आता है। देश की अधिकतर आबादी तो विकास से वंचित ही है।

बेचैन समाज

आज 21वीं सदी के द्वितीय दशक में समस्त राष्ट्रों की विकसित पूंजी, विज्ञान और तकनीकी समेत एकाधिकार बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट कंपनियों के एकमात्र संगठन डब्ल्यूटीओ के साम्राज्य में फल-फूल रहा है. दुनिया की सारी नीतियां इससे निर्देशित हैं. राजनीति, अर्थनीति, समाज एवं आदर्श नीति यहां तक कि शिक्षा की दिशा से लेकर व्यक्तिगत सोच-समझ और चरित्र तक इसकी गिरफ्त से बच नहीं पा रहे हैं. सारी सामाजिक मान्यताएं, आदर्श एवं नैतिकता के मापदंड इस नये परिवेश में नये तरीके से आंके जा रहे हैं. इसमें समाज छूटता सा जा रहा है.
व्यक्ति तथा कॉरपोरेट केंद्रीय भूमिका में हैं. अत्याधुनिक तकनीक ने जिन्सों के उत्पाद का ढेर लगा दिया है. विज्ञापन की मजबूती ने समाज को दिमागी गुलाम बना दिया है. क्रयशक्ति क्षीण होती जा रही है. मानसिकता विकृति और सामाजिक अपराध की जननी बन गयी है. अराजकता, आक्रोश, दिशाहीनता सर्वत्र है. एक अंधे कुएं में भविष्य डूबता जा रहा है. भविष्य का भय, शासक-शासित, संपन्न-विपन्न, मुख्यधारा-वंचित समाज सभी में, सामान्य रूप से है. आदर्श-सिद्धांत अपने अर्थ खोते जा रहे हैं. श्रेष्ठों-अमीरों की आमदनी गरीबों केक साथ जोड़ कर प्रति व्यक्ति आय के भ्रमपूर्ण अर्थशास्त्र की पद्धति ने आज की दुनिया को सुखी, संपन्न एवं बेहतर घोषित किया है. मगर सच्चई सामने है.
असंतोष एवं जलालत से जूझ रहा समाज परिवर्तन और बेहतरी की तरफ बढ़ने को बेचैन है. जन-जागृति एवं सही दिशा-निर्देश के साथ हस्तक्षेप की लड़ाई का एक लंबा, लेकिन कारगर और जुझारू वर्ग संघर्ष स्वत:स्फूर्त है. इसमें सबको अपने स्तर पर भागीदारी निभानी होगी.

वीआइपी दर्जे की चाहत

राजनेताओं की विशिष्ट पहचान को झलकाने वाली संस्कृति का बढ़ावा समय-समय पर गंभीर बहस का मसला बनता रहा है।माना कि माननीयों को उनके कार्य दायित्व को निभाने के लिए कुछ खास सहूलियतों की दरकार हो सकती है, हालांकि यह भी बहस का विषय हो सकता है, लेकिन सुविधाओं के साथ विशिष्ट का तमगा कहां तक जायज है?
हाल ही में नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डीजीसीए) ने सभी निजी एयरलाइनों को एक पत्र जारी कर सांसदों को विशेष सुविधाएं दिए जाने की मांग की है।यह चिट्टी न सिर्फ राजनेताओं की सामंती सोच और प्रवृत्ति की द्योतक है बल्कि यह भी बताती है कि उनके तमाम दावे कितने खोखले हैं।किसी भी राजनेता से पूछिए कि वे करते क्या हैं? चिर-परिचित जवाब मिलेगा, अजी साहब, हम तो जनता के सेवक हैं। क्या कभी सेवक का मालिक से बड़ा रसूख या रुतबा होता है? खुद को जनता का सेवक बताने वाले हमारे जनप्रतिनिधियों द्वारा विशेष रुतबे या वीआइपी दर्जे की चाहत उनकी कलई खोलने के लिए काफी है।अगर साधारण सुविधा से भी काम चल सकता है तो विशेष सुविधा क्यों? आम जनता के खून पसीने की कमाई जो टैक्सों के रूप में इकट्ठा की जाती है, उसको विशेष सुविधाएं देने में क्यों खर्च किया जाए? हमें दुनिया के अन्य मुल्कों से सीखना होगा, जो अपने सांसदों को सिर्फ वेतन देते हैं और कुछ नहीं। घर, गाड़ी, बाकी खर्च वो अपने आप करते हैं।

‘संवेदी पुलिस’


सवाल है ‘संवेदी पुलिस’ किसकी जरूरत है? पुलिस विभाग की? राजनीतिकों की? समाज की? स्त्रियों की? लोकतंत्र की?
एक वर्ष का समय कम नहीं होता, बशर्ते हम सबक लेना चाहें कि हम पहुंचे कहां? इस बीच यौन अपराधियों के विरुद्ध कानूनी ढांचा मजबूत हुआ, पर स्त्री की सुरक्षा की कानूनी मशीनरी ज्यों की त्यों अप्रभावी दिखी।उत्पीड़न और बलात्कार की बाढ़ जरा भी नहीं थमी। वर्ष भर के अनुभवों का सबक यही निकलेगा- राज्य मशीनरी का प्राधिकार बढ़ाने से स्त्री-सुरक्षा की प्रणाली प्रभावी या विश्वसनीय नहीं हुई।
 इस महीने दिल्ली और कोलकाता में घटे दो चर्चित सामूहिक बलात्कार प्रकरणों से क्या सीख ली गई?

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संदेश के मायने

गणतंत्र दिवस की पूर्व-संध्या पर देश के नाम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संदेश में कई बातें ऐसी थीं जिन्हें लेकर विवाद उठना स्वाभाविक है।
उन्होंने कहा कि---
1-- लोकलुभावन अराजकता शासन का विकल्प नहीं हो सकती।
2-- सरकार कोई ‘परमार्थ-दुकान’ नहीं है
3--अगले आम चुनाव के संदर्भ में स्थिरता की वकालत की।

         बाजार-केंद्रित सुधार के पैरोकार सबसिडी के दोष और अर्थव्यवस्था पर उसके कुप्रभाव गिनाते नहीं थकते। लेकिन कर-त्याग के तौर पर लाखों करोड़ रुपए के लाभ कॉरपोरेट जगत को दिए गए हैं।
हिसाब लगाया जाए तो इस सब के मुकाबले आम लोगों को सबसिडी के तौर पर दी जाने वाली रियायत मामूली ही ठहरती है।
 इस पर सवाल क्यों नहीं उठाए जाते?
अगली सरकार कैसे बनेगी, यह राजनीतिक दलों को ही तय करना होगा। किसी तरह का समीकरण उपयुक्त होगा और किस तरह का नहीं, यह सियासी बहस का विषय है। राष्ट्रपति का पद राजनीति से परे माना जाता है। ऐसी संवैधानिक सत्ता, जो राजनीति से परे मानी जाती है, उसका इस मसले पर ऐसा कुछ कहना, जिसमें किसी तरह का झुकाव प्रदर्शित करने की गुंजाइश देखी जाए, संगत नहीं माना जा सकता।

राजनीति एक मिशन

आजादी की लड़ाई के दौरान राजनीति एक मिशन थी। राजनीति में लोग कुर्बानी के जज्बे के साथ आते थे। उस दौर के नेताओं में पदलोलुपता नहीं थी। आजादी मिलने के बाद तो नए भारत के निर्माण का जज्बा उफान पर था। आजादी के कुछ वर्षों बाद कुछ राष्ट्रीय नेताओं की महत्त्वाकांक्षाएं जागृत होने लगीं, लेकिन वे आज की तरह सरेआम नहीं, लोकलाज के परदे के अंदर विकसित होती रहीं। लेकिन छठे दशक तक आते-आते सारे मूल्य विघटित होने लगे। मिशन की भावना कमजोर पड़ने लगी।नैतिक मूल्यों में गिरावट का सिलसिला बरकरार रहा। राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण होता रहा। राजनीति से मिशन के तत्त्व तिरोहित हो गए और वह पूरी तरह एक व्यवसाय या धंधे में परिणत हो गई। चुनाव काले धन के निवेश और आर्थिक स्रोतों पर कब्जे का माध्यम बन गया। जनप्रतिनिधि जन-समस्याओं के निवारण की जगह अपनी सुख-सुविधाएं बढ़ाने में व्यस्त हो गए। धनबल और बाहुबल का प्रयोग बढ़ने लगा। सीधे-सादे और गरीब सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए राजनीति के द्वार बंद हो गए।ऐसे में ‘आप’ जैसी पार्टी नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की वाहक बन कर सामने आई। दिल्ली की सत्ता में आने के साथ इसने जनप्रतिनिधियों के विशिष्टता-बोध को खत्म कर दिया। सुरक्षा के तामझाम और बंगला आदि लेने से इनकार कर दिया। इसके नेता शपथ ग्रहण समारोह में मेट्रो पर सवार होकर पहुंचे। स्वयं को आम आदमी के रूप में पेश किया। इस पार्टी के अभ्युदय को भविष्य की राजनीतिक संस्कृति के लिए एक शुभ संकेत माना जाना चाहिए। आप सरकार कितने दिनों तक चलेगी या क्या करिश्मा दिखा पाएगी, यह सवाल उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना यह कि उसने कौन-सा संदेश दिया है? किन प्रतिमानों की स्थापना की है और उनका दूरगामी प्रभाव क्या पड़ने वाला है? एक अंतर तो अभी से दिखने लगा है कि अब राजनीतिक दलों के अंदर ईमानदार दिखने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है।
        पंचतारा होटलों की आभिजात्य संस्कृति की जगह आम आदमी पार्टी ने सड़क की संस्कृति स्थापित की। इसका असर यह पड़ा कि वातानुकूलित कमरों में बैठ कर राजनीतिक आंकड़ों का जोड़-तोड़ करने वाले भी खुद को धरतीपुत्र बताने में लग गए। उनमें सामान्य नागरिकों की तरह दिखने की होड़ लग गई। दिल्ली में ‘आप’ सरकार की जनोन्मुख कार्यशैली राजनीतिक प्रयोग मात्र नहीं है। इसके अंदर भारतीय मानस की आकांक्षा, संसदीय राजनीति में आई विकृतियों और नैतिक मूल्यों की गिरावट के प्रति क्षोभ शामिल है। इसीलिए जनता ने किसी विचारधारा के पीछे भागने की जगह केवल कार्यक्रम या कार्यनीति की घोषणा करने वाली पार्टी को सिर-आंखों पर बिठाया। राजनीति के एक नए दौर की शुरुआत हुई है। लंबे अंतराल के बाद राजनीति में मिशन की भावना का समावेश हो रहा है।

अभी अरविंद केजरीवाल के समग्र मूल्यांकन का वक्त नहीं आया है...

अभी अरविंद केजरीवाल के समग्र मूल्यांकन का वक्त नहीं आया है।आप की सरकार अभी तो ठीक चल रही है। अभी यह कहना ठीक नहीं होगा कि वादे के मुताबिक वह अपना वादा पूरा करती है या नहीं।
आम आदमी की साख तो तभी थोड़ी कमजोर हो गई थी, जब आप ने कांग्रेस से समर्थन लिया था, बिन्नी ने इसे और भी कमजोर कर दिया। जिस राजनीतिक दल को मतदाताओं ने दूसरे दलों से हटकर समझा था, उसके इस आचार, विचार और व्यवहार पर लोगों का निराश होना स्वाभाविक है। इससे न केवल पार्टी की साख कमजोर हो रही है बल्कि केजरी सरकार के प्रति लोगों की उम्मीदें-आशाएं धराशायी हो रही हैं। ऐसे में इस राजनीतिक दल के उत्थान के बाद इस दिशा और दशा तक पहुंचने के कारणों की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है। हमारी राजनीतिक व्यवस्था में आम आदमी पार्टी के रूप में एक ऐसे राजनीतिक दल का प्रादुर्भाव हुआ जिसने अपनी कथनी और करनी को एक जाहिर कर जनता का दिल जीत लिया। इस राजनीतिक दल के सदस्य आम जनता को अपने से दिखे। कोई बनावटीपन नहीं। जो सही है वही होना चाहिए। जनता उनकी बातों और वादों पर रीझ गई और उन्हें सिर आंखों पर बैठाया। प्रतिद्वंद्वी दलों की तमाम तिकड़मबाजियों के बावजूद दिल्ली में इनकी सरकार भी बनी। अब लोकसभा चुनावों में इस राजनीतिक दल की सशक्त दावेदारी है।

देश की पहली 'ट्विटर मौत'

शशि थरूर और पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार के बीच रिश्ते का सच फिलहाल कोई नहीं जानता। इसी तरह सुनंदा पुष्कर की मौत की असल वजह का भी फिलहाल कुछ नहीं पता, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि शशि-सुनंदा और मेहर के रिश्तों के बीच की उलझी डोर का एक सिरा ट्विटर से जुड़ता है। सुनंदा ने निजी रिश्तों की गांठें ट्विटर पर खोलीं तो विवाद सार्वजनिक हो गए।चर्चित हस्तियों का सोशल मीडिया के जरिये विवादों को जन्म देने का यह कोई पहला मामला नहीं है। सोशल मीडिया पर भावुकता या नाराजगी में कुछ भी लिखे जाने के बाद विवाद होते रहे हैं, लेकिन इस बार बड़ा सवाल सामने है कि क्या सोशल मीडिया पर मचे बवंडर ने सुनंदा की जान ली?
सोशल मीडिया की व्यापक पहुंच इसके तेवरों को धार देती है। सुनंदा-मेहर के बीच विवाद को ही लीजिए। मेहर तरार पाकिस्तानी पत्रकार हैं और उनका भारत आना जाना नियमित नहीं है। बावजूद इसके वह शशि थरूर और सुनंदा के रिश्ते की कथित फांस बन गईं। क्यों? ट्विटर पर डायरेक्ट मैसेज भेजने की सुविधा भी होती है। मतलब यह है कि अगर दो शख्स एक दूसरे को फॉलो करते हैं तो वे एक-दूसरे को सीधे संदेश भेज सकते हैं और यह संदेश उनके फॉलोअर्स को दिखाई नहीं देगा। कई बार लोगों को लगता है कि वे बात अपने प्रोफाइल, एकाउंट या अपने मंच पर कह रहे हैं, लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है।
क्या केंद्रीय मंत्री शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर थरूर की मौत की एक कड़ी माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्विटर से भी जोड़ी जानी चाहिए? क्या सुनंदा की मौत में ट्विटर की कोई भूमिका है? क्या सुनंदा की संदिग्ध मौत को देश की पहली 'ट्विटर मौत' की संज्ञा दी जा सकती है? सोशलाइट सुनंदा पुष्कर की मौत की गुत्थी कई सवालों के साथ इन सवालों के जवाब भी मांग रही है।

शिक्षा

शिक्षा जीवन की ऐसी कड़ी है, जहां से तरक्की और खुशहाली के सारे रास्ते खुलते हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आर्थिक उन्नति का आधार भी शिक्षा ही है, लेकिन यही शिक्षा अगर मजाक बनकर रह जाए तो क्या कहिएगा।65 फीसद बच्चे गणित में भाग के सवाल नहीं कर सकते, जबकि तीसरी कक्षा के 70 फीसद से अधिक बच्चों को साधारण घटाने के सवालों का भी ज्ञान नहीं। यह हाल तब है, जब मोटी तनख्वाह लेने वाले शिक्षकों की फौज इन बच्चों को प्रशिक्षित कर रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इस बदहाली के लिए जिम्मेदार कौन है। शिक्षा, शिक्षा व्यवस्था या सरकार। असल में देखा जाए तो शिक्षा से जुड़े हमारे सारे अंग बेकार पड़ चुके हैं। शिक्षकों को अगर कोई चिंता है तो वेतन-भत्तों की। दुर्गम से सुगम में आने की। तबादले रुकवाने की। इसके अलावा जैसे उन्हें कुछ सूझता नहीं ही नहीं। यही वजह है कि शहर और शहर से लगे स्कूल ओवर स्टॉफ में दबे जा रहे हैं। सूबे में सैकड़ों स्कूल ऐसे हैं, जहां बच्चे आते हैं, दाल-भात खाते हैं और फिर घर की राह पकड़ लेते हैं। अभिभावकों की मजबूरी यह है कि उनके पास बच्चों को इन स्कूलों में भेजने के सिवा कोई विकल्प नहीं। सो, खामोश रहकर तबाह होते भविष्य टुकर-टुकर निहार रहे हैं। 

राहुल गांधी

कांग्रेस ने भले ही राहुल को पीएम पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने से परहेज किया हो, लेकिन इससे इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि कांग्रेस वंशवादी राजनीति का नया अध्याय रचने जा रही है। कांग्रेस को लगता है कि राहुल गांधी को आगे करने के साथ ही उसके भीतर सब कुछ दुरुस्त हो जाएगा। राहुल गांधी सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें ऐसे समय आगे किया जा रहा है जब उनकी मां सोनिया गांधी कांग्रेस की कर्ताधर्ता हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो वर्तमान समय में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के सवाल को पार्टी के भीतर जोर-शोर से उछाला जाता, लेकिन अब यह सुनिश्चित हो चुका है कि वंशवाद की राजनीति जीतेगी और आंतरिक लोकतंत्र की कोई सुध नहीं ली जाएगी।

राजनीतिक सुधार

नया वर्ष तो खास तौर पर उम्मीदों की सौगात लिए हुए आता है। इस नए वर्ष से उम्मीदें इसलिए अधिक हैं, क्योंकि बीते वर्ष ने आशा से अधिक निराशा का संचार किया था ।ध्यान रहे कि बीते वर्ष का आगाज एक तरह से गमगीन माहौल में हुआ था, क्योंकि दिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म की घटना का शिकार युवती की मौत ने देश भर में गम और गुस्से की लहर तारी कर दी थी। यह शुभ संकेत है कि जो कालखंड बीत गया उसकी तुलना में आने वाले कालखंड को लेकर उम्मीदें अधिक हैं। इसका एक बड़ा कारण चंद माह बाद होने वाले आम चुनाव हैं, जो बदलाव का एक बड़ा अवसर उपलब्ध करा रहे हैं। खास बात यह है कि बदलाव की यह कुंजी आम जनता के हाथ में है। आम चुनाव के रूप में आम जनता को अपने भाग्य विधाता चुनने का जो अवसर मिलने जा रहा है वह परिवर्तन की आधारशिला रखने वाला साबित हो सकता है, लेकिन वास्तविक परिवर्तन तब आएगा जब भारतीय राजनीति के तौर-तरीके बदलेंगे।
देश, समाज और खुद राजनीतिक दलों के हित में यही है कि वे बदलाव की तेज होती बयार को महसूस करें और खुद में बदलाव लाएं। यह ठीक नहीं कि किस्म-किस्म के सुधार तो हो रहे हैं, लेकिन राजनीतिक सुधार ठंडे बस्ते में पड़े हुए हैं।इस संदर्भ में बातें तो बहुत हो रही हैं, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि राजनीतिक सुधार हमारे नीति-नियंताओं की प्राथमिकता सूची से बाहर नजर आ रहे हैं।राजनीति की अपनी सीमाएं हैं और यह किसी से छिपा नहीं कि कई बार खुद राजनेताओं को दिशा दिखाने की आवश्यकता पड़ जाती है। यदि समाज सजग, संवेदनशील और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए तत्पर हो तो एक समरस और समृद्ध भारत की तस्वीर में कहीं अधिक आसानी से खुशनुमा रंग भरे जा सकते हैं|

अरविंद केजरीवालो, हमें माफ करना

 मैं यह नहीं जानता हूँ कि अरविंद केजरीवाल कितने सफल हो पाएंगे। उनकी पार्टी और उनके साथी इस देश से और समाज से करप्शन को किस हद तक मिटा पाएंगे, राजनीति को कितना शुद्ध कर पाएंगे? लेकिन मैं उनको और उनके तमाम साथियों को इस बात के लिए सलाम करता हूं कि उन्होंने कोशिश की। भगत सिंह इस मुल्क को आज़ाद नहीं करा पाए, फांसी पर झूल गए, नेताजी भी विफल रहे और संभवतः हवाई दुर्घटना में मारे गए। लेकिन ये वे लोग थे जिन्होंने प्रयास किया। अरविंद केजरीवाल की यह बात बार-बार कानों में गूंजती है कि यदि राजनीति कीचड़ है तो हमें  इस कीचड़ में घुसकर ही उसे साफ करना होगा और यदि नहीं कर पाए और नष्ट हो गए तो हम समझेंगे कि देश के लिए कुर्बानी दे दी।
यह भावना बहुत कम लोगों में होती है। हम जैसे सामान्य लोगों में तो यह बिल्कुल नहीं है। हम बहुत जल्दी हार माननेवालों में हैं। हम यदि कुछ बेहतर पाना और कभी-कभी देना भी चाहते हैं तो भी इस पाने और देने के बदले में अपना कुछ भी खोना नहीं चाहते। हम स्वार्थी और आत्मकेंद्रित लोग हैं। हम क्रांतिकामी हैं लेकिन क्रांतिकारी नहीं हैं। हम समाज को बदलनेवालों में नहीं है। हम खामोश रहकर तमाशा देखनेवाले लोग हैं। इसीलिए हम अरविंद केजरीवाल और चारु मजूमदार नहीं हैं। हम जुलिअन असांज और एडवर्ड स्नोडन भी नहीं हैं