‘संवेदी पुलिस’


सवाल है ‘संवेदी पुलिस’ किसकी जरूरत है? पुलिस विभाग की? राजनीतिकों की? समाज की? स्त्रियों की? लोकतंत्र की?
एक वर्ष का समय कम नहीं होता, बशर्ते हम सबक लेना चाहें कि हम पहुंचे कहां? इस बीच यौन अपराधियों के विरुद्ध कानूनी ढांचा मजबूत हुआ, पर स्त्री की सुरक्षा की कानूनी मशीनरी ज्यों की त्यों अप्रभावी दिखी।उत्पीड़न और बलात्कार की बाढ़ जरा भी नहीं थमी। वर्ष भर के अनुभवों का सबक यही निकलेगा- राज्य मशीनरी का प्राधिकार बढ़ाने से स्त्री-सुरक्षा की प्रणाली प्रभावी या विश्वसनीय नहीं हुई।
 इस महीने दिल्ली और कोलकाता में घटे दो चर्चित सामूहिक बलात्कार प्रकरणों से क्या सीख ली गई?

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संदेश के मायने

गणतंत्र दिवस की पूर्व-संध्या पर देश के नाम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संदेश में कई बातें ऐसी थीं जिन्हें लेकर विवाद उठना स्वाभाविक है।
उन्होंने कहा कि---
1-- लोकलुभावन अराजकता शासन का विकल्प नहीं हो सकती।
2-- सरकार कोई ‘परमार्थ-दुकान’ नहीं है
3--अगले आम चुनाव के संदर्भ में स्थिरता की वकालत की।

         बाजार-केंद्रित सुधार के पैरोकार सबसिडी के दोष और अर्थव्यवस्था पर उसके कुप्रभाव गिनाते नहीं थकते। लेकिन कर-त्याग के तौर पर लाखों करोड़ रुपए के लाभ कॉरपोरेट जगत को दिए गए हैं।
हिसाब लगाया जाए तो इस सब के मुकाबले आम लोगों को सबसिडी के तौर पर दी जाने वाली रियायत मामूली ही ठहरती है।
 इस पर सवाल क्यों नहीं उठाए जाते?
अगली सरकार कैसे बनेगी, यह राजनीतिक दलों को ही तय करना होगा। किसी तरह का समीकरण उपयुक्त होगा और किस तरह का नहीं, यह सियासी बहस का विषय है। राष्ट्रपति का पद राजनीति से परे माना जाता है। ऐसी संवैधानिक सत्ता, जो राजनीति से परे मानी जाती है, उसका इस मसले पर ऐसा कुछ कहना, जिसमें किसी तरह का झुकाव प्रदर्शित करने की गुंजाइश देखी जाए, संगत नहीं माना जा सकता।

राजनीति एक मिशन

आजादी की लड़ाई के दौरान राजनीति एक मिशन थी। राजनीति में लोग कुर्बानी के जज्बे के साथ आते थे। उस दौर के नेताओं में पदलोलुपता नहीं थी। आजादी मिलने के बाद तो नए भारत के निर्माण का जज्बा उफान पर था। आजादी के कुछ वर्षों बाद कुछ राष्ट्रीय नेताओं की महत्त्वाकांक्षाएं जागृत होने लगीं, लेकिन वे आज की तरह सरेआम नहीं, लोकलाज के परदे के अंदर विकसित होती रहीं। लेकिन छठे दशक तक आते-आते सारे मूल्य विघटित होने लगे। मिशन की भावना कमजोर पड़ने लगी।नैतिक मूल्यों में गिरावट का सिलसिला बरकरार रहा। राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण होता रहा। राजनीति से मिशन के तत्त्व तिरोहित हो गए और वह पूरी तरह एक व्यवसाय या धंधे में परिणत हो गई। चुनाव काले धन के निवेश और आर्थिक स्रोतों पर कब्जे का माध्यम बन गया। जनप्रतिनिधि जन-समस्याओं के निवारण की जगह अपनी सुख-सुविधाएं बढ़ाने में व्यस्त हो गए। धनबल और बाहुबल का प्रयोग बढ़ने लगा। सीधे-सादे और गरीब सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए राजनीति के द्वार बंद हो गए।ऐसे में ‘आप’ जैसी पार्टी नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की वाहक बन कर सामने आई। दिल्ली की सत्ता में आने के साथ इसने जनप्रतिनिधियों के विशिष्टता-बोध को खत्म कर दिया। सुरक्षा के तामझाम और बंगला आदि लेने से इनकार कर दिया। इसके नेता शपथ ग्रहण समारोह में मेट्रो पर सवार होकर पहुंचे। स्वयं को आम आदमी के रूप में पेश किया। इस पार्टी के अभ्युदय को भविष्य की राजनीतिक संस्कृति के लिए एक शुभ संकेत माना जाना चाहिए। आप सरकार कितने दिनों तक चलेगी या क्या करिश्मा दिखा पाएगी, यह सवाल उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना यह कि उसने कौन-सा संदेश दिया है? किन प्रतिमानों की स्थापना की है और उनका दूरगामी प्रभाव क्या पड़ने वाला है? एक अंतर तो अभी से दिखने लगा है कि अब राजनीतिक दलों के अंदर ईमानदार दिखने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है।
        पंचतारा होटलों की आभिजात्य संस्कृति की जगह आम आदमी पार्टी ने सड़क की संस्कृति स्थापित की। इसका असर यह पड़ा कि वातानुकूलित कमरों में बैठ कर राजनीतिक आंकड़ों का जोड़-तोड़ करने वाले भी खुद को धरतीपुत्र बताने में लग गए। उनमें सामान्य नागरिकों की तरह दिखने की होड़ लग गई। दिल्ली में ‘आप’ सरकार की जनोन्मुख कार्यशैली राजनीतिक प्रयोग मात्र नहीं है। इसके अंदर भारतीय मानस की आकांक्षा, संसदीय राजनीति में आई विकृतियों और नैतिक मूल्यों की गिरावट के प्रति क्षोभ शामिल है। इसीलिए जनता ने किसी विचारधारा के पीछे भागने की जगह केवल कार्यक्रम या कार्यनीति की घोषणा करने वाली पार्टी को सिर-आंखों पर बिठाया। राजनीति के एक नए दौर की शुरुआत हुई है। लंबे अंतराल के बाद राजनीति में मिशन की भावना का समावेश हो रहा है।

अभी अरविंद केजरीवाल के समग्र मूल्यांकन का वक्त नहीं आया है...

अभी अरविंद केजरीवाल के समग्र मूल्यांकन का वक्त नहीं आया है।आप की सरकार अभी तो ठीक चल रही है। अभी यह कहना ठीक नहीं होगा कि वादे के मुताबिक वह अपना वादा पूरा करती है या नहीं।
आम आदमी की साख तो तभी थोड़ी कमजोर हो गई थी, जब आप ने कांग्रेस से समर्थन लिया था, बिन्नी ने इसे और भी कमजोर कर दिया। जिस राजनीतिक दल को मतदाताओं ने दूसरे दलों से हटकर समझा था, उसके इस आचार, विचार और व्यवहार पर लोगों का निराश होना स्वाभाविक है। इससे न केवल पार्टी की साख कमजोर हो रही है बल्कि केजरी सरकार के प्रति लोगों की उम्मीदें-आशाएं धराशायी हो रही हैं। ऐसे में इस राजनीतिक दल के उत्थान के बाद इस दिशा और दशा तक पहुंचने के कारणों की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है। हमारी राजनीतिक व्यवस्था में आम आदमी पार्टी के रूप में एक ऐसे राजनीतिक दल का प्रादुर्भाव हुआ जिसने अपनी कथनी और करनी को एक जाहिर कर जनता का दिल जीत लिया। इस राजनीतिक दल के सदस्य आम जनता को अपने से दिखे। कोई बनावटीपन नहीं। जो सही है वही होना चाहिए। जनता उनकी बातों और वादों पर रीझ गई और उन्हें सिर आंखों पर बैठाया। प्रतिद्वंद्वी दलों की तमाम तिकड़मबाजियों के बावजूद दिल्ली में इनकी सरकार भी बनी। अब लोकसभा चुनावों में इस राजनीतिक दल की सशक्त दावेदारी है।

देश की पहली 'ट्विटर मौत'

शशि थरूर और पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार के बीच रिश्ते का सच फिलहाल कोई नहीं जानता। इसी तरह सुनंदा पुष्कर की मौत की असल वजह का भी फिलहाल कुछ नहीं पता, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि शशि-सुनंदा और मेहर के रिश्तों के बीच की उलझी डोर का एक सिरा ट्विटर से जुड़ता है। सुनंदा ने निजी रिश्तों की गांठें ट्विटर पर खोलीं तो विवाद सार्वजनिक हो गए।चर्चित हस्तियों का सोशल मीडिया के जरिये विवादों को जन्म देने का यह कोई पहला मामला नहीं है। सोशल मीडिया पर भावुकता या नाराजगी में कुछ भी लिखे जाने के बाद विवाद होते रहे हैं, लेकिन इस बार बड़ा सवाल सामने है कि क्या सोशल मीडिया पर मचे बवंडर ने सुनंदा की जान ली?
सोशल मीडिया की व्यापक पहुंच इसके तेवरों को धार देती है। सुनंदा-मेहर के बीच विवाद को ही लीजिए। मेहर तरार पाकिस्तानी पत्रकार हैं और उनका भारत आना जाना नियमित नहीं है। बावजूद इसके वह शशि थरूर और सुनंदा के रिश्ते की कथित फांस बन गईं। क्यों? ट्विटर पर डायरेक्ट मैसेज भेजने की सुविधा भी होती है। मतलब यह है कि अगर दो शख्स एक दूसरे को फॉलो करते हैं तो वे एक-दूसरे को सीधे संदेश भेज सकते हैं और यह संदेश उनके फॉलोअर्स को दिखाई नहीं देगा। कई बार लोगों को लगता है कि वे बात अपने प्रोफाइल, एकाउंट या अपने मंच पर कह रहे हैं, लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है।
क्या केंद्रीय मंत्री शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर थरूर की मौत की एक कड़ी माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्विटर से भी जोड़ी जानी चाहिए? क्या सुनंदा की मौत में ट्विटर की कोई भूमिका है? क्या सुनंदा की संदिग्ध मौत को देश की पहली 'ट्विटर मौत' की संज्ञा दी जा सकती है? सोशलाइट सुनंदा पुष्कर की मौत की गुत्थी कई सवालों के साथ इन सवालों के जवाब भी मांग रही है।

शिक्षा

शिक्षा जीवन की ऐसी कड़ी है, जहां से तरक्की और खुशहाली के सारे रास्ते खुलते हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आर्थिक उन्नति का आधार भी शिक्षा ही है, लेकिन यही शिक्षा अगर मजाक बनकर रह जाए तो क्या कहिएगा।65 फीसद बच्चे गणित में भाग के सवाल नहीं कर सकते, जबकि तीसरी कक्षा के 70 फीसद से अधिक बच्चों को साधारण घटाने के सवालों का भी ज्ञान नहीं। यह हाल तब है, जब मोटी तनख्वाह लेने वाले शिक्षकों की फौज इन बच्चों को प्रशिक्षित कर रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इस बदहाली के लिए जिम्मेदार कौन है। शिक्षा, शिक्षा व्यवस्था या सरकार। असल में देखा जाए तो शिक्षा से जुड़े हमारे सारे अंग बेकार पड़ चुके हैं। शिक्षकों को अगर कोई चिंता है तो वेतन-भत्तों की। दुर्गम से सुगम में आने की। तबादले रुकवाने की। इसके अलावा जैसे उन्हें कुछ सूझता नहीं ही नहीं। यही वजह है कि शहर और शहर से लगे स्कूल ओवर स्टॉफ में दबे जा रहे हैं। सूबे में सैकड़ों स्कूल ऐसे हैं, जहां बच्चे आते हैं, दाल-भात खाते हैं और फिर घर की राह पकड़ लेते हैं। अभिभावकों की मजबूरी यह है कि उनके पास बच्चों को इन स्कूलों में भेजने के सिवा कोई विकल्प नहीं। सो, खामोश रहकर तबाह होते भविष्य टुकर-टुकर निहार रहे हैं। 

राहुल गांधी

कांग्रेस ने भले ही राहुल को पीएम पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने से परहेज किया हो, लेकिन इससे इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि कांग्रेस वंशवादी राजनीति का नया अध्याय रचने जा रही है। कांग्रेस को लगता है कि राहुल गांधी को आगे करने के साथ ही उसके भीतर सब कुछ दुरुस्त हो जाएगा। राहुल गांधी सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें ऐसे समय आगे किया जा रहा है जब उनकी मां सोनिया गांधी कांग्रेस की कर्ताधर्ता हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो वर्तमान समय में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के सवाल को पार्टी के भीतर जोर-शोर से उछाला जाता, लेकिन अब यह सुनिश्चित हो चुका है कि वंशवाद की राजनीति जीतेगी और आंतरिक लोकतंत्र की कोई सुध नहीं ली जाएगी।

राजनीतिक सुधार

नया वर्ष तो खास तौर पर उम्मीदों की सौगात लिए हुए आता है। इस नए वर्ष से उम्मीदें इसलिए अधिक हैं, क्योंकि बीते वर्ष ने आशा से अधिक निराशा का संचार किया था ।ध्यान रहे कि बीते वर्ष का आगाज एक तरह से गमगीन माहौल में हुआ था, क्योंकि दिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म की घटना का शिकार युवती की मौत ने देश भर में गम और गुस्से की लहर तारी कर दी थी। यह शुभ संकेत है कि जो कालखंड बीत गया उसकी तुलना में आने वाले कालखंड को लेकर उम्मीदें अधिक हैं। इसका एक बड़ा कारण चंद माह बाद होने वाले आम चुनाव हैं, जो बदलाव का एक बड़ा अवसर उपलब्ध करा रहे हैं। खास बात यह है कि बदलाव की यह कुंजी आम जनता के हाथ में है। आम चुनाव के रूप में आम जनता को अपने भाग्य विधाता चुनने का जो अवसर मिलने जा रहा है वह परिवर्तन की आधारशिला रखने वाला साबित हो सकता है, लेकिन वास्तविक परिवर्तन तब आएगा जब भारतीय राजनीति के तौर-तरीके बदलेंगे।
देश, समाज और खुद राजनीतिक दलों के हित में यही है कि वे बदलाव की तेज होती बयार को महसूस करें और खुद में बदलाव लाएं। यह ठीक नहीं कि किस्म-किस्म के सुधार तो हो रहे हैं, लेकिन राजनीतिक सुधार ठंडे बस्ते में पड़े हुए हैं।इस संदर्भ में बातें तो बहुत हो रही हैं, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि राजनीतिक सुधार हमारे नीति-नियंताओं की प्राथमिकता सूची से बाहर नजर आ रहे हैं।राजनीति की अपनी सीमाएं हैं और यह किसी से छिपा नहीं कि कई बार खुद राजनेताओं को दिशा दिखाने की आवश्यकता पड़ जाती है। यदि समाज सजग, संवेदनशील और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए तत्पर हो तो एक समरस और समृद्ध भारत की तस्वीर में कहीं अधिक आसानी से खुशनुमा रंग भरे जा सकते हैं|

अरविंद केजरीवालो, हमें माफ करना

 मैं यह नहीं जानता हूँ कि अरविंद केजरीवाल कितने सफल हो पाएंगे। उनकी पार्टी और उनके साथी इस देश से और समाज से करप्शन को किस हद तक मिटा पाएंगे, राजनीति को कितना शुद्ध कर पाएंगे? लेकिन मैं उनको और उनके तमाम साथियों को इस बात के लिए सलाम करता हूं कि उन्होंने कोशिश की। भगत सिंह इस मुल्क को आज़ाद नहीं करा पाए, फांसी पर झूल गए, नेताजी भी विफल रहे और संभवतः हवाई दुर्घटना में मारे गए। लेकिन ये वे लोग थे जिन्होंने प्रयास किया। अरविंद केजरीवाल की यह बात बार-बार कानों में गूंजती है कि यदि राजनीति कीचड़ है तो हमें  इस कीचड़ में घुसकर ही उसे साफ करना होगा और यदि नहीं कर पाए और नष्ट हो गए तो हम समझेंगे कि देश के लिए कुर्बानी दे दी।
यह भावना बहुत कम लोगों में होती है। हम जैसे सामान्य लोगों में तो यह बिल्कुल नहीं है। हम बहुत जल्दी हार माननेवालों में हैं। हम यदि कुछ बेहतर पाना और कभी-कभी देना भी चाहते हैं तो भी इस पाने और देने के बदले में अपना कुछ भी खोना नहीं चाहते। हम स्वार्थी और आत्मकेंद्रित लोग हैं। हम क्रांतिकामी हैं लेकिन क्रांतिकारी नहीं हैं। हम समाज को बदलनेवालों में नहीं है। हम खामोश रहकर तमाशा देखनेवाले लोग हैं। इसीलिए हम अरविंद केजरीवाल और चारु मजूमदार नहीं हैं। हम जुलिअन असांज और एडवर्ड स्नोडन भी नहीं हैं