बेचैन समाज

आज 21वीं सदी के द्वितीय दशक में समस्त राष्ट्रों की विकसित पूंजी, विज्ञान और तकनीकी समेत एकाधिकार बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट कंपनियों के एकमात्र संगठन डब्ल्यूटीओ के साम्राज्य में फल-फूल रहा है. दुनिया की सारी नीतियां इससे निर्देशित हैं. राजनीति, अर्थनीति, समाज एवं आदर्श नीति यहां तक कि शिक्षा की दिशा से लेकर व्यक्तिगत सोच-समझ और चरित्र तक इसकी गिरफ्त से बच नहीं पा रहे हैं. सारी सामाजिक मान्यताएं, आदर्श एवं नैतिकता के मापदंड इस नये परिवेश में नये तरीके से आंके जा रहे हैं. इसमें समाज छूटता सा जा रहा है.
व्यक्ति तथा कॉरपोरेट केंद्रीय भूमिका में हैं. अत्याधुनिक तकनीक ने जिन्सों के उत्पाद का ढेर लगा दिया है. विज्ञापन की मजबूती ने समाज को दिमागी गुलाम बना दिया है. क्रयशक्ति क्षीण होती जा रही है. मानसिकता विकृति और सामाजिक अपराध की जननी बन गयी है. अराजकता, आक्रोश, दिशाहीनता सर्वत्र है. एक अंधे कुएं में भविष्य डूबता जा रहा है. भविष्य का भय, शासक-शासित, संपन्न-विपन्न, मुख्यधारा-वंचित समाज सभी में, सामान्य रूप से है. आदर्श-सिद्धांत अपने अर्थ खोते जा रहे हैं. श्रेष्ठों-अमीरों की आमदनी गरीबों केक साथ जोड़ कर प्रति व्यक्ति आय के भ्रमपूर्ण अर्थशास्त्र की पद्धति ने आज की दुनिया को सुखी, संपन्न एवं बेहतर घोषित किया है. मगर सच्चई सामने है.
असंतोष एवं जलालत से जूझ रहा समाज परिवर्तन और बेहतरी की तरफ बढ़ने को बेचैन है. जन-जागृति एवं सही दिशा-निर्देश के साथ हस्तक्षेप की लड़ाई का एक लंबा, लेकिन कारगर और जुझारू वर्ग संघर्ष स्वत:स्फूर्त है. इसमें सबको अपने स्तर पर भागीदारी निभानी होगी.

वीआइपी दर्जे की चाहत

राजनेताओं की विशिष्ट पहचान को झलकाने वाली संस्कृति का बढ़ावा समय-समय पर गंभीर बहस का मसला बनता रहा है।माना कि माननीयों को उनके कार्य दायित्व को निभाने के लिए कुछ खास सहूलियतों की दरकार हो सकती है, हालांकि यह भी बहस का विषय हो सकता है, लेकिन सुविधाओं के साथ विशिष्ट का तमगा कहां तक जायज है?
हाल ही में नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डीजीसीए) ने सभी निजी एयरलाइनों को एक पत्र जारी कर सांसदों को विशेष सुविधाएं दिए जाने की मांग की है।यह चिट्टी न सिर्फ राजनेताओं की सामंती सोच और प्रवृत्ति की द्योतक है बल्कि यह भी बताती है कि उनके तमाम दावे कितने खोखले हैं।किसी भी राजनेता से पूछिए कि वे करते क्या हैं? चिर-परिचित जवाब मिलेगा, अजी साहब, हम तो जनता के सेवक हैं। क्या कभी सेवक का मालिक से बड़ा रसूख या रुतबा होता है? खुद को जनता का सेवक बताने वाले हमारे जनप्रतिनिधियों द्वारा विशेष रुतबे या वीआइपी दर्जे की चाहत उनकी कलई खोलने के लिए काफी है।अगर साधारण सुविधा से भी काम चल सकता है तो विशेष सुविधा क्यों? आम जनता के खून पसीने की कमाई जो टैक्सों के रूप में इकट्ठा की जाती है, उसको विशेष सुविधाएं देने में क्यों खर्च किया जाए? हमें दुनिया के अन्य मुल्कों से सीखना होगा, जो अपने सांसदों को सिर्फ वेतन देते हैं और कुछ नहीं। घर, गाड़ी, बाकी खर्च वो अपने आप करते हैं।