एक आम भारतीय की नज़र से —
राजेश अस्थाना अनंत
मैं कोई राजनीतिक पंडित नहीं हूँ, न ही चुनावी आंकड़ों का जानकार। मैं बस एक आम भारतीय हूँ, जो हर चुनाव में यही उम्मीद करता है कि क्या कभी हमारी राजनीति जाति से ऊपर उठकर काबिलियत और काम की बात करेगी?
इसी उम्मीद के बीच नितिन नबीन का नाम सामने आता है। मेरे लिए यह सिर्फ किसी एक नेता की कहानी नहीं है, बल्कि उस सोच का संकेत है जिसे भाजपा लगातार आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है।
बिहार में रहने वाला हर आम आदमी जानता है कि यहाँ राजनीति लंबे समय से जाति के तराजू पर तौली जाती रही है। किस समुदाय की आबादी कितनी है, कौन-सा समीकरण किसे फायदा देगा—इन्हीं गणनाओं में राजनीतिक रणनीतियाँ बनती रही हैं। लेकिन जब महज 0.6 प्रतिशत आबादी वाले कायस्थ समाज से आने वाले एक युवा नेता नितिन नबीन को भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी जिम्मेदारी देती है, तो यह सवाल खुद-ब-खुद उठता है—क्या अब राजनीति में योग्यता की कीमत बढ़ रही है?
एक आम नागरिक के तौर पर मुझे लगता है कि भाजपा का यह कदम साफ संदेश देता है—जाति को वोट बाँटने का औज़ार नहीं, समाज को जोड़ने का माध्यम बनना चाहिए। आबादी कम हो लेकिन काबिलियत ज़्यादा हो, तो तराज़ू का पलड़ा योग्यता की ओर झुकना चाहिए।
45 साल की उम्र में नितिन नबीन का पाँच बार विधायक चुना जाना किसी संयोग का नतीजा नहीं है। यह मेहनत, निरंतर जनसंपर्क और ज़मीनी राजनीति का परिणाम है। मेरे जैसे आम आदमी के लिए यह भरोसा जगाने वाली बात है कि शायद अब पहचान जाति से नहीं, काम से तय होगी।
यह नियुक्ति उन राजनीतिक दलों के लिए भी एक आईना है, जो आज भी सिर्फ जातीय गणित में उलझे हुए हैं। अगर वे नहीं बदले, तो समय और जनता दोनों उन्हें पीछे छोड़ देंगे—क्योंकि अब लोग सिर्फ अपनी जाति नहीं, अपने बच्चों का भविष्य देख रहे हैं।
मेरी नज़र में नितिन नबीन सिर्फ एक नाम नहीं हैं। वे उस बदलते राजनीतिक नैरेटिव का प्रतीक हैं, जहाँ वोट बैंक से ज़्यादा विज़न और पहचान से ज़्यादा प्रदर्शन को अहमियत दी जा रही है।
अगर भाजपा इसी सोच के साथ आगे बढ़ती रही, तो शायद आने वाले समय में हम यह कह पाएँगे कि— भारत की राजनीति ने जाति से नहीं, काबिलियत से अपनी पहचान बनाई।
राजेश अस्थाना अनंत
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