“न्याय की ज्योति और मानवता का अनंत पथ”



भारत के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास में डॉ. भीमराव आंबेडकर केवल एक व्यक्तित्व नहीं, बल्कि एक बौद्धिक चेतना, एक नैतिक क्रांति और एक दार्शनिक दृष्टि के प्रतीक हैं। उनका जीवन हमें यह समझाता है कि न्याय केवल कानून की किताबों में लिखी कोई अवधारणा नहीं, बल्कि मनुष्य की आत्मा की पुकार है—एक ऐसी पुकार जो हर उस समाज में गूँजती है जहाँ अन्याय, विषमता और भेदभाव की धुंध अभी तक छँटी नहीं है।

आंबेडकर का दर्शन वस्तुतः मानव गरिमा का दर्शन है। वे मानते थे कि मनुष्य जन्म से नहीं, बल्कि अपने अधिकारों और अवसरों की समानता से मनुष्य बनता है। यही कारण है कि उन्होंने आंदोलन, अध्ययन और संविधान—तीनों आयामों में न्याय को केंद्र में रखा। सामाजिक न्याय उनके लिए कोई राजनीतिक नारा नहीं था; वह मनुष्य के नैतिक अस्तित्व की अनिवार्यता थी।

उनका यह आग्रह कि “अधिकार निर्मित नहीं, अर्जित किए जाते हैं” केवल प्रेरणा नहीं, बल्कि चेतावनी भी है। इससे वे हमें बताते हैं कि किसी भी समाज में परिवर्तन तभी स्थायी होता है जब जनता स्वयं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो और उन्हें सुरक्षित रखने का साहस रखे।

बाबा साहब का समानता का विचार केवल अवसर या विधिक अधिकारों तक सीमित नहीं था। उनकी दृष्टि में समानता का वास्तविक अर्थ है—ऐसा समाज जहाँ किसी व्यक्ति की पहचान उसकी क्षमता, विचार और इच्छाशक्ति से बने, न कि उसके जन्म, जाति या किसी मनगढ़ंत सामाजिक श्रेणी से। इसलिए उनका लोकतंत्र का मॉडल महज़ चुनाव प्रणाली नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं का एक नैतिक पुनर्गठन था।

स्वतंत्रता उनके लिए बाहरी बंधनों से मुक्ति भर नहीं थी। यह आंतरिक भय, आत्म-हीनता और दमनकारी परंपराओं की बेड़ियों से मुक्ति भी थी। आंबेडकर जानते थे कि यदि मनुष्य भीतर से स्वतंत्र नहीं है, तो संविधान की कोई भी धारा उसकी गरिमा को सुरक्षित नहीं रख सकती।

और बंधुता—जिसे वे लोकतंत्र का आधार मानते थे—उनके दर्शन की आत्मा है। बिना बंधुता के समानता संघर्ष बन जाती है और स्वतंत्रता स्वार्थ। बंधुता वह नैतिक भावना है जो समाज को केवल व्यवस्थित ही नहीं, बल्कि मानवीय बनाती है।

आज जब हम बाबा साहब के महापरिनिर्वाण दिवस पर उन्हें नमन करते हैं, तो वस्तुतः हम स्वयं से यह प्रश्न पूछ रहे होते हैं कि क्या हम उनके बताए पथ पर चल पा रहे हैं? क्या हम वही समाज बना रहे हैं जिसकी परिकल्पना उन्होंने की थी—जहाँ मनुष्य की पहचान उसके सम्मान से होती है, जहाँ अवसरों का सूरज सबके लिए समान रूप से उगता है, और जहाँ न्याय केवल अदालतों में नहीं, बल्कि रोजमर्रा के व्यवहार में भी दिखाई देता है?

बाबा साहब की विरासत कोई बंद अध्याय नहीं है। वह एक जीवित यात्रा है—एक ऐसा मार्ग जो हर पीढ़ी से अपने हिस्से की प्रतिबद्धता और संघर्ष माँगता है।

उनका संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना स्वतंत्र भारत के निर्माण के समय था:
“समानता संघर्ष से मिलती है, स्वतंत्रता चेतना से और बंधुता करुणा से।”

हम जब तक इन तीनों को अपने जीवन और समाज में स्थापित नहीं करते, तब तक आंबेडकर का स्वप्न अधूरा रहेगा।
और यही अधूरापन हमें लगातार जगाता है—न्याय, मानवता और विवेक के उस अनंत पथ पर आगे बढ़ने के लिए।
राजेश अस्थाना अनंत 

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