दार्शनिक दृष्टि से देखें तो आतंकवादी कृत्य “उद्देश्य के लिए साधनों को उचित ठहराने” की विकृत सोच से जन्म लेते हैं। जब कोई विचारधारा मनुष्य को साधन मात्र बना देती है, तब हत्या नैतिक अपराध नहीं, रणनीति बन जाती है। यही वह बिंदु है जहाँ आतंकवादी और नरभक्षी पशु की उपमा उभरती है—न कि इसलिए कि वे पशु हैं, बल्कि इसलिए कि उन्होंने विवेक, सहानुभूति और नैतिक विवेक को त्याग दिया है। मनुष्य होने का अर्थ केवल देह नहीं, विवेक है; और जब विवेक का परित्याग होता है, तब हिंसा “तर्क” का रूप ले लेती है।
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