आंतरिक और जातीय संघर्ष

तकनीकी विकास ने सशस्त्र संघर्ष में बच्चों की भूमिका बदल दी है। एक तरफ जहां दो देशों के बीच युद्ध की संख्या में कमी आई है, वहीं आंतरिक संघर्ष से दुनिया के तीस से ज्यादा देश जूझ रहे हैं। बच्चे इनसे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। लेकिन अब युद्ध से ज्यादा खतरा आंतरिक और जातीय संघर्षों से है, क्योंकि इस तरह के ‘युद्ध’ कई देशों में उनकी अपनी जमीन पर लड़ी जा रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आंतरिक और जातीय संघर्ष में मरने वालों की संख्या युद्ध में मरने वालों से कहीं ज्यादा होती जा रही है। गौरतलब है कि ऐसे आंतरिक संघर्षों में बेकसूर लोग आसानी से शिकार होते हैं। दुनिया के इन संघर्षों में जो लड़ाके हैं उनमें से लगभग एक चौथाई बच्चे हैं। यूनेस्को की इफा मॉनीटरिंग रिपोर्ट 2011 के मुताबिक, दुनिया में चौदह साल से कम उम्र के जो बच्चे स्कूलों से बाहर हैं, उनमें से बयालीस फीसद बच्चे (दो करोड़, अस्सी लाख) उन देशों में हैं, जहां आंतरिक सशस्त्र संघर्ष चल रहा है। संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक आज लगभग ढाई से तीन लाख के बीच बच्चे अलग-अलग देशों में चल रहे सशस्त्र संघर्ष में शामिल हैं।
दक्षिण एशिया के देश, जैसे नेपाल, श्रीलंका, अफगानिस्तान आदि में बच्चे भी युद्ध में शामिल थे। नेपाल में तकरीबन दस साल लंबे चले जन-युद्ध में साढ़े तीन से चार हजार बच्चे माओवादी सशस्त्र दल में शामिल थे। दुनिया के अनेक देशों में विरोधी समूह के प्रति बदले की भावना और अपने जातीय-धार्मिक समूह के प्रति गौरव का भाव पैदा करके बच्चों को सशस्त्र दल में शामिल किया जा रहा है। दरअसल, सशस्त्र समूह के रणनीतिकारों ने बच्चों की भर्ती बहुत सोच-समझ कर की है। युद्धरत समूह दो दशक पहले तक जहां बच्चों का उपयोग सूचना लेने और देने, सामान ढोने, खाना बनाने आदि के काम में करते थे, वहीं अब बारह-चौदह साल के बच्चों को पहली पंक्ति के लड़ाके बना रहे हैं। हल्के वजन और सुगम हथियारों के लिए बच्चों का प्रशिक्षण आसान होता है। दस-बारह वर्ष के बच्चे एके-47, एके-57 जैसे हथियार आसानी से चला सकते हैं और उन्हें ढो सकते हैं। परंपरागत हथियारों को ढोना और चलाना, दोनों ही बच्चों के लिए आसान नहीं था।बच्चे खाना भी कम खाते हैं और उन्हें नियंत्रित करना आसान होता है। यह भी एक कारण है कि लड़ाका समूह बच्चों की भर्ती पर जोर देता है। बाल सैनिकों में शामिल लड़कियों की स्थिति और भी दुखद है। उनका समाज में दुबारा से जुड़ना भी एक चुनौती होती है। युद्धरत समूह में भी उनके शारीरिक शोषण की घटनाएं होती रहती हैं। उनके प्रति अन्य किस्म की हिंसा होने की संभावना औरों की तुलना में ज्यादा होती है। यूनिसेफ के एक अनुमान के मुताबिक छोटे और हल्के हथियारों के कारण 1990 से लेकर अब तक बीस लाख से ज्यादा बच्चे युद्धों में मारे जा चुके हैं, साठ लाख से ज्यादा बच्चे घायल हुए और दो करोड़ चालीस लाख बच्चों को अपना घर छोड़ना पड़ा है। हिंसा के कारण बच्चों के अपने और अन्य अधिकार भी छिन जाते हैं।
मैं झारखंड के ऐसे कई बच्चों से मिला जो माओवाद प्रभावित इलाकों के रहने वाले हैं। माओवादी और पुलिस के बीच चल रहे संघर्ष से बचने के लिए वे जिला और राज्य मुख्यालय में पढ़ रहे हैं। गौरतलब है कि बच्चों पर सूचना देने और लेने का दबाव माओवादी और पुलिस दोनों की तरफ से रहता है। सस्ते होते हथियार और उनकी सुगम उपलब्धता आने वाले समय में एक बड़ी चुनौती के रूप में उभर कर आने वाली है। इसकी झलक पिछड़े और विकासशील देशों के अलावा अमेरिका जैसे देशों के स्कूलों में भी दिखने लगी है, जहां बेवजह अंधाधुंध फायरिंग की घटनाएं अक्सर होती रहती हैं।

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