शांति तो अर्थहीनता में है...........

लंबे समय से हलचल का आलम था। चित्त अशांत, अस्थिर और अस्त-व्यस्त। इतना गतिशील, जैसे पत्थर पर्वत से लुढ़क रहा हो, इसकी गति स्वत:स्फूर्त होती है, स्वनियंत्रित नहीं। गति उसकी चाह हो या न हो, उसे गतिशील होना ही होता है। और हर गतिशीलता को कभी न कभी गतिहीन भी होना होता है, चाहे तो ‘रिचार्ज’ होने के लिए या फिर खत्म हो जाने के लिए। खैर, मन की गति ने शरीर को भी थका दिया था। मन को स्थिरता चाहिए थी और शरीर को गतिहीनता। सारे गणित लगाए थे। काम को नुकसान तो नहीं होगा, अगले दिन काम का दबाव ज्यादा तो नहीं होगा! सारी व्यवस्था पहले दिमाग में आई और तब छुट्टी का निर्णय हो पाया। कई तरह के भावनात्मक और नैतिक दबाव और उद्वेलन से थके मन-मस्तिष्क के लिए शांति का रास्ता बस निष्क्रिय होने से ही निकल पाता है। कुछ न करो, बस खुद को छोड़ दो। मन को मुक्त कर दो, हर सवाल से, दबाव से, उद्वेलन, अपेक्षा और ख्वाहिश से। और गतिशीलता, सक्रियता की हालत में यह संभव कैसे हो पाता है! तो पहले निष्क्रियता और फिर संगीत के सहारे सुकून की तलाश के लिए छुट्टी ली थी।
जो कुछ दिखाई देता है, वह सब कुछ हमें बांटता है, खींच लेता है अपनी तरफ। जितने ‘दृश्य’ होंगे, हम खुद से उतने ही दूर होंगे। हम खुद से बाहर, बिखरे हुए होंगे। हर सृजन की पृष्ठभूमि में ‘तम’ होता है। शांति का आगोश भी ‘अंधेरा’ ही होता है। कोख के अंधेरे से लेकर सृजन के अंधेरे तक ब्रह्मांड भी अंधेरा है। मन की तहें भी अंधेरी और गुह्य, शांति का रूप भी अंधेरा ही है। आंखें बंद करके ही तो शांति की राह पर चला जा सकता है। रोशनी बस भटकाती है। तो शांति के लिए पहले अंधेरा चुना, फिर संगीत। उस अंधेरे में कुछ नई गजलें लहराने लगीं। हर शेर, हर शब्द के अर्थ तक पहुंचने में भटकने लगे। हर जगह अर्थ है और हर अर्थ की परत है। मन उन्हीं परतों में उलझ जाता है, भटक जाता है, गुम हो जाता है। वह वहां पहुंच ही नहीं पाता, जो स्वयं अर्थ है।
थोड़ी देर की कवायद के बाद लगा कि यह बड़ा थकाऊ है और इससे तो हम कहीं नहीं पहुंच पा रहे हैं। मन तो अर्थों की परतों में भटकने लगा है! क्या इससे शांति मिल पाएगी! बदल दिया संगीत का स्वरूप... शब्दों से इतर सुर पर आ पहुंचे। कुछ मौसम ने भी रहमदिली दिखाई। धूप सिमट गई और काले बादल छा गए। अंधेरा घना और गाढ़ा हो गया। मन कुछ और खुल गया। प्रेम और भक्ति के भाव से लेकर करुणा और वात्सल्य तक, सब कुछ अर्थहीन है, क्योंकि ये स्वयं ही अर्थ हैं। इन्हें शब्द अर्थ नहीं दे सकते हैं। शब्द तो सीमा है, परिभाषा में बांधने की बेवजह की कोशिश। हर ‘दृश्य’ की परिभाषा है, शब्द है। हर शब्द के अर्थ हैं, बल्कि जिनके अर्थ हैं, वही शब्द कहलाए। बस यहीं तक शब्द सीमित है, क्योंकि हर अर्थ की परतें हैं। और इन परतों में ही भटकाव है तो फिर क्या ‘अर्थों’ में शांति है! नहीं, शांति तो अर्थहीनता में है, जो कुछ सहज और तरल है। जो बहुत सूक्ष्म और वायवी है, वह सब कुछ अर्थहीन है और तर्कहीन भी, जैसे प्रेम, दया, भक्ति, सौंदर्य, सृजन, करुणा, वात्सल्य, क्योंकि इन्हें अर्थों की दरकार ही नहीं है। परिभाषाओं से परे हैं, ये स्वयं में अर्थ हैं। जहां भी अर्थ होगा, वहीं भटकाव भी होगा। मतलब ‘अर्थ’ भटकाता है, चाहे उसका संदर्भ ‘अर्थ’, यानी मायने से हो या फिर ‘अर्थ’ यानी धन से!

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