चार यार – एक ज़िंदगी
लेखक: राजेश अस्थाना अनंत
अध्याय 1: पहली घंटी और पहला ठहाका
स्थान: लखनऊ, सिटी कैरियर इंटर कॉलेज – जुलाई की उमस भरी सुबह
घंटी अभी बजी ही थी कि स्कूल के गेट पर भीड़ का सैलाब धीरे-धीरे अंदर घुस रहा था। बैग एक कंधे पर, शर्ट आधी बाहर निकली, बालों पर पानी के छींटे और चेहरों पर छुट्टी की उम्मीद जैसा भाव।
बरामदे के कोने में एक दुबला-पतला, आंखों में हल्की शरारत लिए लड़का खड़ा था – वैभव। उसके दूसरे कंधे पर झोला और हाथ में कोल्ड-ड्रिंक की खाली बोतल। जैसे ही घंटी बजी, उसने बोतल को ऊपर हवा में उछाला और हाथों से उसे लपकने का असफल प्रयास किया।
"अरे भाई, ये फुटबॉल है या खुद की नाक तोड़ने का तरीका?"
पास से गुजरते सुशील की हंसी गूंज गई।
सुशील से मिलते ही वैभव को समझ आ गया – ये बंदा उतना ही 'अकादमिक' है जितना वो खुद।
क्लास में घुसते ही एक कोने में चश्मा पहने, मोटी नोटबुक में कुछ लिखते हुए शरद दिखा। वैभव ने सोचा – ये तो पक्का क्लास का मॉनिटर होगा, लेकिन पास जाकर देखा तो साहब बड़े ग़ुरूर से एक शेर लिख रहे थे:
"तेरे बिन हम वीरान हैं,
फीस जमा कर दो वरना भगवान ही मालिकान हैं।"
पीछे की बेंच पर, बालों में तेल चुपड़कर तिरछी मुस्कान लिए शिशिर बैठा था। वह किसी को पेंसिल से पर्ची खिसका रहा था, और बदले में वही पर्ची अगले ही पल दो और टेबल पार कर रही थी।
पहले पीरियड में मैथ्स की क्लास में ही चारों को ‘क्लास के सबसे बदमाश कोने’ में भेज दिया गया — कारण: हंसना, फुसफुसाना और पर्ची पास करना।
वैभव (धीरे से): "हम सब एक ही लकड़ी के चम्मच हैं लगता है।"
सुशील: "लकड़ी नहीं, गन्ना बोल… मीठे भी और मजबूत भी।"
शरद: "शेर बनाऊँ क्या इस पर?"
शिशिर: "बनाओ, पर पहले ये पर्ची नेहा को पहुंचानी है।"
घंटी खत्म होते ही लग गया — आने वाले साल अब किताबों से ज्यादा किस्सों में कटेंगे।
अध्याय 2 : खून वाला ख़त
स्थान: वही – लखनऊ,सिटी कैरियर इंटर कॉलेज – अगस्त की उमस भरी दोपहर
दोपहर के बाद का वक्त था। पंखे ऐसे घूम रहे थे मानो किसी ने उन पर कर्ज़ चढ़ा दिया हो — घूम तो रहे हैं, मगर मन मारकर। क्लास में आधी भीड़ नींद और आधी बोरियत से जूझ रही थी।
वैभव की नज़र खिड़की के बाहर बाईं ओर टिकी हुई थी — वहीं, क्लास 11-सी की नेहा मैदान में अपनी सहेलियों के साथ हंस-हंसकर कुछ बातें कर रही थी।
वैभव (सुशील के कान में फुसफुसाते): "बस हो गया… आज तो दिल का इज़हार पक्का है।"
सुशील: "फिर से? पिछले हफ्ते कविता दी थी, उसने उल्टा मुझे रिटर्न कर दी थी।"
वैभव: "इस बार प्लान ग्रैंड है… मैं खून से खत लिखूंगा।"
शरद ने अपनी नोटबुक से झांकते हुए बीच में टांग अड़ाई –
"अगर डर लगे तो मेरे पास लाल स्याही है, वैसी ही दिखेगी। खून का खर्च और चोट दोनों बचेंगे।"
ऑपरेशन ‘लाल इंक लव’
छुट्टी से पहले, चारों पिछली बेंच पर ‘लव लैब’ खोल बैठे। शरद ने अपने कवि-मस्तिष्क से खत के लिए शुरुआती लाइन दी:
"लिखता हूँ ख़त खून से, स्याही न समझना,
मरता हूँ तेरे नाम पे, जुमला न समझना।"
वैभव ने इसे ऐसे घुमाया कि दो पन्ने भर गए। शिशिर ने अपने हुनर का इस्तेमाल कर खत को चार बार फोल्ड किया, एकदम ‘गुप्त हथियार’ फॉर्मेट में।
प्लान साफ था— पीरियड के बदलते ही शिशिर चुपचाप 11-सी में जाकर नेहा की डेस्क में खत रख आएगा।
मैडम का प्रवेश
जैसे ही गणित की मैडम, मिसेज़ सक्सेना, क्लास में घुसीं, शिशिर बाहर निकलने ही वाला था। लेकिन नियति को कुछ और मंज़ूर था। पीछे से आवाज़ आई –
"ये क्या है तुम्हारे हाथ में?"
शिशिर सकपका गया। “मैडम… बस… होमवर्क की चिट्टी।”
मैडम ने झपटकर चिट्टी खोली – और पूरे क्लास में सन्नाटा। फिर अचानक मैडम की चप्पल फर्श पर सरकते ही वैभव की धड़कन भी सरक गई।
मैडम (तेज़ आवाज़ में पढ़ते हुए): "लिखता हूँ खत खून से… स्याही न समझना… अरे वाह! देखो तो ज़रा ये!”
पूरा क्लास ठहाकों से गूंज उठा — और नेहा की हंसी सबसे ऊंची थी।
मुर्गा-ए-आशिक
सज़ा तय हुई — वैभव दरवाज़े के बाहर ‘फुल-टाइम मुर्गा’ बनेगा, सुशील और शिशिर बारी-बारी से वॉच ड्यूटी करेंगे (ताकि वो भाग न जाए)।
शरद, जो अंदर बैठा था, ने नोटबुक में अपने दिन का दूसरा शेर लिखा:
"तुझ पर मर कर हम मुर्गा बने,
लेकिन तेरी हंसी पर भी ताली बजे।"
उस दिन के बाद ये साफ़ हो गया था — चारों की दोस्ती सिर्फ़ बैग और कॉपी की साझेदारी नहीं है, ये तो बेइज्ज़ती का भी पार्टनरशिप फ़र्म है।
और वैभव के दिल में पक्का यकीन था — “नेहा चाहे जवाब दे या न दे… ये खत हमारे ग्रुप को इतिहास में दर्ज कर देगा।”
अध्याय 3 : सुशील का गुलाब कांड और असेंबली की रेड-लाइट
स्थान: लखनऊ,सिटी कैरियर इंटर कॉलेज – बसंत पंचमी की सुबह
स्कूल का बगीचा अपने पूरे रंग में था। गुलाब, गेंदे, रजनीगंधा… ऐसे लग रहे थे जैसे अपने-अपने रंग का फैशन शो कर रहे हों।
सुशील, जो खुद को क्लास का "स्टाइल आइकॉन" मानता था, आज सुबह बड़े आत्मविश्वास के साथ बोला –
सुशील: “भाइयो, आज हम भी इश्क़ के मैदान में उतरेंगे। नेहा को गुलाब देकर वैभव का कॉम्पटीशन करेंगे।”
वैभव: (हैरान) “अबे, ये तो मेरी रनिंग केस फाइल है!”
शरद: “वाह, प्यार का ‘टेंडर’ भी खुल गया क्या?”
शिशिर: “कमाल है… अब मैं ‘डिलीवरी बॉय 2.0’ बनूंगा।”
गुप्त मिशन "गुलाब एक्सप्रेस"
पहले पीरियड से पहले सुशील बगीचे में चुपके घुसा। उसने गौर से एक ताज़ा, लाल-लाल गुलाब चुना… जैसे ही तोड़ा, कान के पास आवाज़ गूंजी —
रामसेवक माली: “ओ भइये, फूल तोड़ के भागता कहाँ है?”
सुशील के चेहरे का रंग गुलाब से भी ज्यादा लाल हो गया। भागने की कोशिश की, लेकिन माली ने कंधे से पकड़ लिया और सीधा असेंबली ग्राउंड में ले आया।
असेंबली में ‘प्यार का परचम’
हेडमास्टर साहब ने माइक पर नाम पुकारा:
“आज का नैतिक शिक्षा संदेश – फूल तोड़ना भी गलत है और… (हल्की मुस्कान) किसी के दिल के फूल तोड़ना भी गलत है। उदाहरण: सुशील!”
पूरा मैदान हंसी से गूंज उठा।
वैभव तो ताली मार-मार कर कह रहा था – “नेहा, देख, आज तो फ्लोरल अटैक हुआ है!”
शरद ने मौके पर तुकबंदी मार दी –
"फूल तोड़कर लाया था, दिल का नाम लिखाने,
असेंबली में नाम पुकारा, अब चुपचाप पढ़ने जाने।"
सुशील को उस दिन महसूस हुआ कि गुलाब सिर्फ रोमांस नहीं, कभी-कभार पब्लिक प्रॉपर्टी केस का सबूत भी बन सकता है।
बोनस ट्विस्ट – शिशिर का पर्ची कांड
असेंबली के बाद क्लास में शिशिर ने वैभव की मदद से नेहा के लिए एक और पर्ची बनाई — "Sorry for the rose incident, but friendship forever?"
पर्ची गलती से नेहा की जगह गणित की मैडम की कॉपी में चली गई।
दोपहर में मैडम ने वैभव को बुलाकर कहा —
"मुझे खुशी है, तुम मुझसे फ्रेंडशिप करना चाहते हो, लेकिन ये तुम्हारे पापा से कहूं या प्रिंसिपल से?"
उस दिन ग्रुप को समझ आ गया — कि हमारे लिए मैथ्स + मोहब्बत = बैक पेपर पक्की।
अध्याय 4 : यूनिवर्सिटी का पहला दिन – बड़ा कैंपस, वही कारनामे
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स्थान: लखनऊ विश्वविद्यालय – जुलाई की हल्की-सी बरसात वाली सुबह
बारिश थमकर अभी-अभी गिरी थी, और लखनऊ यूनिवर्सिटी का हरा-भरा कैंपस धुलकर चमक रहा था।
वैभव, सुशील, शरद और शिशिर – चारों ने जैसे एक मिशन की तरह एक साथ एंट्री ली।
वैभव के सिर पर नया जेल लगा था, सुशील ने कॉलर खड़ी कर रखी थी, शरद के हाथ में वही पुरानी नोटबुक (जिसमें शेर-कविताएँ लिखी थीं) और शिशिर के पास… दोस्तों के लिए च्यूइंग गम का स्टॉक — “सोशल इंटरैक्शन टूल”।
सुशील: "दोस्तो, अब हम स्कूल वाले बच्चे नहीं, यूनिवर्सिटी के ‘जेंटलमैन’ हैं।”
वैभव: "ठीक है, पर जेंटलमैन वाली चाल मत डाल, यहाँ लड़कियों के क्रश बॉय पहले साल में ही तय हो जाते हैं।”
शरद: (कविताई अंदाज़ में) “हर डगर पर होगा इश्क़ का इम्तिहान,
पर पास वही होगा जो करे दिल की जान!”
शिशिर: "तेरा ये शेर सुनकर तो हम पहली क्लास में ही फेल हो जाएंगे!"
नई क्लास, नया क्रश
पहला पीरियड – अंग्रेज़ी साहित्य।
प्रोफेसर जैसे ही आए, छात्रों ने अपने-अपने परिचय देने शुरू कर दिए। तभी दरवाज़े के पास से एक लड़की अंदर आई – लंबा कद, नीली साड़ी, और शायद उसी दिन अंशिका नाम से पहचानी जाने लगी।
वैभव का तो ध्यान प्रोफेसर के शब्दों से उड़कर सीधे उस तक जा पहुंचा।
ब्रेक में उसने हिम्मत दिखाते हुए अंशिका से बोला:
"आपकी आँखें तो समुद्र से गहरी है जिसमें मैं डूबा जा रहा हूं."
अंशिका का उत्तर:
"समुद्र तो बहुत गहरा होता है, पर आप तो बहुत ही छिछले लग रहें हैं।"
पूरा ग्रुप दबे-छुपे हँसते-हँसते लोट गया और वैभव की ‘रोमांटिक एंट्री’ पहले दिन ही क्रैश-लैंड कर गई।
पहली बड़ी बेइज्ज़ती – फ़्लर्टिंग का फर्स्ट फेलियर
यूनिवर्सिटी की कैंटीन में ब्रेक के दौरान, चारों ने बैठकर ‘प्लान बी’ बनाना शुरू किया।
सुशील – जो हमेशा आत्मविश्वास से भरा रहता था – बोला,
"भाई, पहला दिन है, हार मत मानो। कल तक तू फिर से इम्प्रेस करने की कोशिश करेगा, मैं सपोर्ट में खड़ा रहूँगा।”
लेकिन अगली सुबह सुशील का ‘सपोर्ट’ अंशिका की सहेली से फ्लर्ट करने में लग गया — और मौके पर वैभव अकेला खड़ा रह गया।
शरद ने रोज़ाना के हिसाब से एक नया शेर मारा:
"निगाहों का तीर चला था, दिल पे लगना था,
दोस्त के भरोसे छोड़ा था, और वो खुद पगला था।"
अध्याय 5 : खेलों का मैदान और शेरों की बरसात
स्थान: लखनऊ विश्वविद्यालय – स्पोर्ट्स डे
स्पोर्ट्स डे के दिन कैंपस अलग ही रौनक में था। चारों ने सोचा कि इस बार पढ़ाई-लिखाई को किनारे रखकर मैदान में नाम कमाया जाए।
सुशील सबसे उत्साहित था। उसने एलान किया –
सुशील: “आज 100 मीटर रेस में उतरेंगे, और फिनिश लाइन पर हीरो वाली स्लो-मोशन में पोज़ देंगे।”
वैभव, शरद और शिशिर ने भी उसका हौसला बढ़ा दिया — क्योंकि उन्हें पता था कि नतीजा चाहे कुछ भी हो, मज़ा पक्का आएगा।
जीन्स का जाल
स्टार्टिंग लाइन पर सीटी बजते ही सब दौड़े। बाकी धावक स्पोर्ट्स शॉर्ट्स में थे, लेकिन सुशील अपनी फिट जीन्स और बेल्ट समेत भागने लगा।
पहले ही कदम में उसकी जीन्स का लूप जूते में फंस गया और धप्प! — हीरो जमीन पर, बाकी खिलाड़ी दोगुनी स्पीड से आगे।
वैभव (दूर से चिल्लाते हुए): “स्लो-मोशन तो बन ही गया भाई!”
शिशिर: “अब बस रिवाइंड करके देख लो।”
सुशील उठा, तो घुटने छिल गए थे लेकिन कॉलर अब भी खड़ी थी।
ओपन माइक का धमाका
शाम को यूनिवर्सिटी का सांस्कृतिक कार्यक्रम था। शरद ने निश्चय किया – “आज मैं अपनी रोमांटिक शायरी से सबका दिल जीत लूंगा।”
माइक पर जाकर उसने शुरू किया:
"तेरी याद में हम इतना रोए,
कि वॉशरूम में पानी भर गया..."
पूरा हॉल एक सेकंड को चुप हुआ, फिर ठहाकों से भर गया।
प्रोग्राम के बाद लोग उसके पास आए और बोले – “भाई, तेरा कॉमिक टाइमिंग कमाल है!”
शरद (निराश): “अरे मैंने तो रोमांस किया था!”
वैभव: “रोमांस था, लेकिन डिलीवरी कॉमेडी हो गई।”
खेल का नतीजा और दिन का सार
उस दिन के बाद सुशील का नाम यूनिवर्सिटी ग्रुप चैट में “स्प्रिंट जीन्स मॉडल”, और शरद का “कॉमेडी शायर” पड़ गया।
वैभव और शिशिर ने ये तय कर लिया कि इन दोनो को अब हर इवेंट में पुश करेंगे — बस बेइज्ज़ती कंटेंट तैयार करने के लिए।
अध्याय 6 : शिशिर का मोबाइल मैसेंजर कांड
स्थान: लखनऊ विश्वविद्यालय – अर्थशास्त्र विभाग
कॉलेज में सिर्फ खत और पर्ची का ज़माना गया था, अब व्हाट्सऐप और सस्ते स्मार्टफोन का दौर था। शिशिर, जो स्कूल में "प्रेम दूत" था, अब अपग्रेड होकर "मोबाइल मैसेंजर" बन चुका था।
उसका काम था — लड़कों के लिये उनके क्रश को मेसेज पहुँचाना और लड़कियों के लिये गिफ्ट या रिप्लाई लाकर देना।
प्रेम का संदेश
एक दिन वैभव ने शिशिर को अपना मोबाइल थमाते हुए कहा:
वैभव: "ये मैसेज अंशिका को फॉरवर्ड कर दे ना — मुझे तुम बहुत अच्छी लगती हो , मेरी दोस्त बन जाओ ना’ और ध्यान रखना, कुछ गड़बड़ ना हो!”
शिशिर: “टेंशन मत ले, मैं इस काम का सीनियर खिलाड़ी हूँ।”
शिशिर ने मैसेज टाइप करके सेंड मारा… और मोबाइल रख दिया।
ग़लत हाथ में मोबाइल
मुसीबत ये हुई कि वैभव का फोन विभाग के व्हाट्सऐप ग्रुप से भी जुड़ा था — जिसमें सभी प्रोफेसर और स्टूडेंट थे।
शिशिर ने गलती से मैसेज अंशिका की बजाय उसे विभाग के ग्रुप में भेज दिया।
1 मिनट में 57 मैसेज आ चुके थे —
"???", "किसके लिए है ये?", "वाह शिशिर भाई 😆"
और बीच में प्रोफेसर मिश्रा का सधा हुआ रिप्लाई —
"जवान लोग अपने भावनात्मक निवेश में भी सोच-समझकर खर्च किया करें।"
कैंटीन में आफ़त
अगले दिन कैंटीन में कदम रखते ही सबने ताली बजाकर शिशिर का स्वागत किया।
सुशील: "मैसेंजर से सीधे क्यूपिड बन गया तू!"
शरद: (तुरंत शेर मारते हुए)
"इश्क़ का तीर कहीं और चला,
प्रोफेसर के दिल पर भी खरोंच पड़ा।”
वैभव पहले तो गुस्से में था, लेकिन जब उसने देखा कि अब अंशिका भी उसे “Love Guru” कहकर चिढ़ा रही है, तो हँसी रोक न पाया।
उस दिन के बाद से शिशिर की डिलीवरी सर्विस पर से सबका भरोसा तो उठ गया, लेकिन उसकी कॉमेडी ब्रांड वैल्यू आसमान छू गई।
अध्याय 7 : रोमांस बनाम गैस का चूल्हा
स्थान: लखनऊ – वैभव का नया फ्लैट
कॉलेज के बाद धीरे-धीरे चारों अपने-अपने रास्तों पर चल पड़े — नौकरियाँ, करियर, और फिर शादियाँ।
सबसे पहले शादी हुई वैभव की, जो अब बैंक मैनेजर बन चुका था।
पहली ऐनिवर्सरी पर उसने सोचा — आज प्रिया को सरप्राइज़ देंगे। अपने से सारा अरेंजमेंट करेंगे
रात को घर लौटकर उसने मोमबत्तियाँ लगाईं, गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखेर दीं, हल्का म्यूज़िक सेट किया और एकदम हीरो वाली स्टाइल में बोला —
वैभव: “Happy Anniversary, my love…”
प्रिया ने चारों तरफ देखा और मुस्कुराकर पूछा —
“गैस का नॉब बंद किया है न?”
रोमांटिक माहौल गैस चूल्हे पर रखे प्रेशर कुकर धमाके के साथ हवा की में उड़ गया।
उस दिन दोस्तों के व्हाट्सऐप ग्रुप में उसका नया नाम पड़ा — मिस्टर प्रेशर कुकर।
अध्याय 8 : सेल्फ़ी दादा और कैप्शन का कहर
स्थान: सुशील का घर
सुशील ने कॉलेज के बाद कपड़ों का बिज़नेस शुरू किया और शादी के बाद सोशल मीडिया स्टार बनने की ठान ली।
एक दिन फैमिली डिनर पर उसने ट्राइपॉड लगाकर दर्जनों फोटो खींचीं और एक खूबसूरत ग्रुप पिक्चर इंस्टाग्राम पर पोस्ट की।
कैप्शन लिखा — "With my gang" — और टैग कर दिया वैभव, शरद और शिशिर को।
शाम को पत्नी का मैसेज आया —
“तो हम कौन हैं? गेस्ट आर्टिस्ट?”
उस रात से सुशील ने समझ लिया कि कुछ ‘गैंग पोस्ट’ सिर्फ दोस्तों के लिए ही रखनी चाहिए। बाकी पोस्ट… सेफ ज़ोन में रहनी चाहिए।
अध्याय 9 : शेर और नमक कम
स्थान: शरद का किचन-ड्रामा
शरद अब एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क था, लेकिन दिल में अभी भी कवि बसा हुआ था।
बीवी के हाथ के पराठे खाते हुए उसने रोमांटिक मूड में कहा —
शरद: "तेरे हाथ की पराठों में ग़ज़ल का जादू है,
बस सब्जी में नमक थोड़ा कम है…”
चार घंटे बाद डिनर टेबल पर नमक बिना की खिचड़ी रखी थी — बीवी का कलात्मक जवाब।
उस दिन उसने दोस्तों को ये सूचित किया कि “कभी-कभी कविता भी जानलेवा हो सकती है।”
अध्याय 10 : प्यार से ग्रॉसरी तक
स्थान: शिशिर की डिलीवरी सर्विस 2.0
शिशिर शादी के बाद मोहल्ला समिति का "जनरल सेक्रेटरी" बन गया। उसकी डिलीवरी स्किल अब बदलकर सब्ज़ी, दूध, ब्रेड और इलेक्ट्रिसिटी बिल पहुंचाने में इस्तेमाल हो रही थी।
एक दिन पत्नी का मैसेज आया— "रास्ते में हरि मिष्ठान भंडार से रसगुल्ले लेते आना"
गलती से उसने यह मैसेज मोहल्ले के व्हाट्सऐप ग्रुप में फॉरवर्ड कर दिया।
शाम होते-होते आधा मोहल्ला मिठाई की दुकान पर पहुंच गया, फिर दुकानदार ने फोन कर पूछा — “सर, आधा मोहल्ला आपके घर मिठाई ले जाने के लिए मांग रहा है क्या सारा हिसाब आपके खाते में लिख दूं?”
अध्याय 11 : गोमतीनगर पार्क वाली सुबहें
स्थान: लखनऊ – गोमतीनगर का सेंट्रल पार्क
रिटायरमेंट के बाद चारों की सुबह का नया अड्डा था — पार्क की वो लंबी बेंच, जो पीपल के पेड़ तले मिलती थी।
वैभव हर दिन योगासन का बैग लेकर आता, लेकिन मैट बिछाने के बाद बैठकर कहता —
वैभव: “अरे भाई, सुबह-सुबह फ्रेश हवा में बैठना ही सबसे बड़ा योग है… बाक़ी आसन लेडीज़ ग्रुप कर ही रही हैं।”
सुशील तो जैसे अब पार्क में सिर्फ कैमरा लेकर ही आता। गिलहरियों की फोटो, फूलों की क्लोज़-अप, और दोस्तों की ‘कैंडिड’ शॉट —
सुशील: “ये वाली फोटो फेसबुक पर डालूंगा कैप्शन के साथ – ‘मॉर्निंग पॉज़िटिविटी’।”
शरद: “पॉज़िटिविटी है या लेडीज़ के बैकग्राउंड का क्रिएटिव एंगल?”
अध्याय 12 : गिलहरी सेल्फ़ी और बीवी का शक
एक दिन सुशील ने पार्क में एक गिलहरी को मुट्ठी में मूँगफली खिलाते हुए सेल्फ़ी खींच ली और व्हाट्सऐप पर भेज दी कैप्शन — "With my morning friend 🐿️"
दोपहर होते-होते उसकी पत्नी का फोन —
“ये कौन है? और तुम्हें कबसे सुबह कोडवर्ड में भेजने की आदत पड़ गई!”
उस दिन से सुशील ने कैमरे का एंगल बदल लिया — अब फोटो में सिर्फ़ अपने पैर और पार्क की घास आती थी।
अध्याय 13 : कवि सम्मेलन में ‘पकवान प्रतिबंध’
शरद अब मोहल्ले के कवि सम्मेलन में ‘वरिष्ठ हास्य कवि’ कहलाने लगे थे।
एक बार उन्होंने माइक पर शेर पढ़ दिया —
"पेंशन से चल रहा है घर का चूल्हा,
और बीवी ने काम करा करा कर हिला दिया है मेरा कुल्हा…"
श्रोता तो हँस पड़े, पर बीवी अगले दिन से एक हफ्ते तक सिर्फ़ दलिया बनाने लगीं।
दोस्तों ने चुटकी ली —
“अब समझ में आया, कविता भी महंगी पड़ सकती है।”
अध्याय 14 : मोहल्ला समिति और बिस्किट की राजनीति
शिशिर मोहल्ला समिति के जनरल सेक्रेटरी बन गए थे — और हर मीटिंग में चाय और नमकपारे का इंतज़ाम उन्हीं का होता।
एक बार फंड की गड़बड़ी पर किसी ने पूछ दिया — “बाक़ी पैसे कहां गए?”
शरद तुरंत माइक पर —
"बजट में चाय और नाश्ता है,
बाक़ी पैसा किसके पास है?"
शिशिर झल्ला कर बोला — “अगली बार तुम्हें बस खरी-खोटी परोसूँगा, बिस्किट नहीं!”
अध्याय 15 : हुसैनगंज की कसम
महीने में एक बार चारों हुसैनगंज की पुरानी चाय की दुकान पर ज़रूर मिलते।
एक दिन वहीं बैठकर सबने तय किया —
वैभव: “जब तक एक भी जिंदा रहेगा, बाकी तीन मिलने ज़रूर आएंगे।”
सुशील: “और मीटिंग में सुशील फोटोग्राफर नहीं होगा — वरना सब लोग घर जाकर सोफ़ा रिज़र्वेशन पक्की कर देंगे।”
चाय के कप टकराए — ठहाकों के साथ एक नया वादा भी तय हो गया।
अध्याय 16 : आख़िरी सफ़र का प्लान
स्थान: गोमतीनगर पार्क – सर्दियों की एक धूप भरी सुबह
पार्क की बेंच पर बैठे हुए वैभव ने छड़ी से ज़मीन पर गोल-गोल गोला बनाते हुए कहा –
वैभव: “भाईयो, जितना डॉक्टर की पर्ची पढ़ा है इन दिनों, उतना तो स्कूल में किताब भी नहीं पढ़ी थी… मेरा बस चले तो एक बार सब दवाई-पर्ची फाड़ के कहीं घूमने निकल चलें।”
शिशिर के हाथ में चाय का थर्मस था, उसने कप भरते हुए कहा –
शिशिर: “घूमना? किसे देख कर बोल रहे हो? हम चारों को? ये घुटनों वाला ग्रुप?”
सुशील ने चश्मा संभालते हुए बीच में बोल दिया –
सुशील: “घुटने-घुटने छोड़ो… नैनीताल चलते हैं। पहाड़, झील और ढेर सारी फोटो मैं खींचूँगा।”
शरद ने कवि-मूड में जोड़ा –
"अगर इस सफ़र में सांसें साथ दे गईं,
तो यादें हमें अमर कर जाएंगी।"
प्लान वहीं पक्का हो गया — अगले हफ्ते ट्रेन से काठगोदाम और वहाँ से सीधा नैनीताल।
अध्याय 17 : सफ़र की शुरुआत
ट्रेन में चारों का अलग ही ताल था — सुशील की कैमरा क्लिकिंग, वैभव की खिड़की के बाहर देखते हुए पुरानी यादें, शरद की डायरी में लिखते हुए लम्हों के शेर, और शिशिर का बैग में से बार-बार नमकपारे निकालना।
वैभव: “ये देखो बादल, ऐसे लग रहे जैसे हमारी सफ़ेद दाढ़ी आसमान में उड़ रही हो।”
शरद: “और वो पहाड़? जैसे हमारी दोस्ती — मज़बूत, अडिग।”
सुशील: “स्टॉप, ये लाइन मेरे इंस्टा कैप्शन के लिए सही है!”
अध्याय 18 : झील किनारे वही हंसी
नैनीताल पहुँचकर चारों सीधे झील के किनारे गए। ठंडी हवा, पानी में तैरते बत्तखें, और उनके बीच बैठकर चाय की प्याली —
वैभव: “यार, यहां बैठकर लगता है कि समय रुक गया है।”
शिशिर: “समय तो रुका है, बस हमारी सांसें याद दिलाती हैं कि रियल टाइम में हैं।”
शरद ने शेर पढ़ा –
"झील में जैसे पानी का कोई अंत नहीं,
हमारी दोस्ती का भी कोई अंत नहीं।"
सबने ताली बजाई, और ठहाके गूंज उठे… वो ठहाके जिसमें न स्कूल के दिन थे, न कॉलेज के, न घर–परिवार के झंझट — बस दोस्ती थी।
अध्याय 19 : आखिरी शाम
रात को होटल की बालकनी में बैठकर चारों ने पुराने गाने लगाए — "गुलाबी आँखें", "चुरा लिया है तुमने", "ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे"…
मोमबत्ती की हल्की रोशनी में झील के पार पहाड़ सिर्फ़ छाया जैसे दिख रहे थे, और उनके बीच चार कप चाय टकराए।
वैभव: “शायद ये हमारी आखिरी लंबी यात्रा हो, दोस्तों।”
सुशील: “तो क्या हुआ? हमने आखिरी तक साथ तो निभाया।”
शरद: "उम्र ढल गई, मगर साथ न ढला,
दोस्ती का सूरज कभी डूबा न भला।"
शिशिर: “अगली बार ऊपर मिलेंगे, और वहां भी चाय मेरी तरफ से!”
अध्याय 20 : वापसी का सफर
वापस जाते वक्त ट्रेन में आधी बातों में ठहाका, आधी में खामोशी थी।
लेकिन चारों के दिल में एक ही सुकून था — हमने आखिरी पन्ना भी हंसी से भरा है।
आख़िरी पन्ना, अनंत महफ़िल
लखनऊ में अब वो पुराना स्कूल नहीं रहा, न यूनिवर्सिटी की कैंटीन, और न ही हुसैनगंज का वही चाय वाला बरामदा।
समय ने सब बदल डाला — इमारतें, चेहरे, और चार यारों के बालों का रंग भी।
लेकिन जो नहीं बदला, वो था — उनके बीच का वादा।
हर फोटो में चार उम्रदराज़ चेहरों की झुर्रियों के बीच वही चमक थी, जो स्कूल के उस पहले दिन बेंच के कोने पर बैठकर हँसते वक्त थी।
हर हंसी में वही खनक थी, जो पहली मुर्गा-बनने वाली सज़ा के समय थी।
वैभव के घर की पुरानी अलमारी में एक डिब्बा रखा था — उसमें स्कूल के खत, कॉलेज के फोटोग्राफ्स, शादी के बाद के ग्रुप फोटो, और नैनीताल की उस आखिरी ट्रिप की चाय के कप की रिम तक थी।
जब भी कोई उस डिब्बे को खोलता, मानो फिर से चार यारों की महफ़िल सजी हो।
समाज, परिवार, जिम्मेदारियां, उधार, बीमारियाँ —
कुछ भी उनकी बीच वाली डोर को छू नहीं सका।
क्योंकि असली दोस्ती… वक्त के साथ बूढ़ी नहीं होती,
वो तो सालों की परत चढ़कर और भी कीमती हो जाती है।
वैभव, सुशील, शरद और शिशिर का अंदाज़ अब भी वैसा ही था —
बस अब चाय का कप थोड़ा धीरे उठता, ठहाका थोड़ी देर में निकलता,
लेकिन निकलता जरूर था…
और शायद यही उनकी पूरी दास्तान का मतलब था —
"ज़िंदगी के आखिरी पन्ने पर भी
हंसी का एक कॉमा बाकी रह जाना चाहिए।"